-वीर विनोद छाबड़ा
एक राजा अपने राज्य के भ्रमण पर निकला।
रास्ते में उसे एक वृक्ष की छांव तले विश्राम करता एक साधु दिखा। राजा ने रथ से
उतर कर उसे दंडवत प्रणाम किया।
मंत्री ने राजा को ऐसा करते देखा तो अच्छा नहीं लगा - श्रीमानजी, आप राजा हैं। साधु
को आपके पास आकर प्रणाम करना चाहिए न कि आपको। आपने ऐसा क्यों किया?
राजा बोले - मंत्री जी, इसका उत्तर मैं कुछ दिन बाद दूंगा।
कुछ दिन बाद राजा ने मंत्री को बुलाया - मंत्री जी ये ढेर सुंदर-सुंदर मुखौटे हैं, आधे मेरे चेहरे के
और आधे साधु के। इन्हें राज्य में बेच दीजिये। मेरी इच्छा यह जानने की है कि प्रजा
की पसंद का रुझान क्या है?
मंत्री जी आश्चर्य चकित हुए। लेकिन उन्हें तो राजा की आज्ञा का पालन करना ज़रूरी
था। मंत्री जी वेश-भूषा बदल कर राज्य में जगह-जगह जाने के लिए निकल पड़े। दो दिन बाद
वो लौट कर आये। उसने बताया - राजन, साधु के मुखौटे मिनट भर में बिक गया। लेकिन क्षमा करें राजन, आपके मुखौटे लाख कोशिश
के बावजूद किसी ने भी नहीं खरीदे।
राजा ने कहा - मंत्री जी एक बार फिर जायें। यदि कोई न खरीदे तो इन मुखौटों को मुफ़्त
में दे दें।
दो दिन बाद मंत्री जी लौट कर आये। उन्होंने बहुत दुःख के साथ बताया - राजन, मैंने बहुतेरी कोशिश
की। लेकिन नाकाम रहा। किसी ने भी आपका मुखौटा नहीं खरीदा और न ही मुफ़्त में लेने को
कोई तैयार हुआ। सबने यही कहा कि इस कूड़े को लेकर हम क्या करेंगे?
राजा ने कहा - मंत्री जी, आपको आपके उस प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा, जब आपने पूछा था कि
मैंने रथ से उतर कर साधु को दंडवत प्रणाम क्यों किया था। मंत्री जी, साधु दीन-दुनिया से
ऊपर होता है। उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली होती है एंव स्थाई है। राजा अस्थाई है। आज
है और कल नहीं। इसीलिए राजा के मुखौटे नहीं बिके लेकिन साधु के सारे के सारे बिक गए।
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नोट - उक्त कथा एक प्राचीन प्रेरक कथा पर आधारित है।
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प्रेरणादयक कहानी
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