Tuesday, March 1, 2016

पता नहीं कल हो न हो!

-वीर विनोद छाबड़ा
रोज़ की तरह शाम के समय पार्क में खासी भीड़ है। आठ-दस वृद्धाएं बड़ी बेचैन हैं। बार-बार प्रवेश द्वार पर नज़र उठती है। उन्हें किसी विशेष अतिथि का इंतज़ार है। तभी व्हील चेयर पर एक वृद्धा आती दिखती है।
उनके झुर्रीदार चेहरे फूल की मानिंद एकदम से खिल उठते हैं। गयी हुई सांसे मानो लौट आती हैं। व्हील चेयर वाली वृद्धा इस गैंग की रिंग लीडर है। इसे सब हंटरवाली कहते हैं। उसे उसकी बहु लेकर आई है। वृद्धा कहती है - बहु अब तू जा। दो घंटे बाद आना। मोबाइल कर दूंगी। 
एक वृद्धा अपनी ख़ुशी व्यक्त करती है। शुक्र है तू ज़िंदा है। हम तो डर गए थे कि तेरी बहु ने निपटा न दिया हो। दूसरी के पेट में तो कबसे मरोड़ उठ रहे हैं। आओ अब भजन-कीर्तन करें। तीसरी ढोलक बजाती है....आज बहु ने हद कर दी.रोटी को घी तक नहीं दिखायामेरी वाली अपना पराठा मक्खन से चुपड़ती है....मेरी तो बड़ी डॉक्टर ही है जैसे....भैंसी हुई जा रही हैनासपीटी कहीं की। 
रोज़ाना एक जैसे मुद्दे और घंटनाएं। बस थोड़ा नमक-मिर्च कभी तेज और कभी हल्का होता है। 
बहु-पुराण में तक़रीबन दो घंटे बीत जाते हैं। वृद्धाएं जब पार्क में घुसी थीं तो इच्छा मृत्यु की बात कर रही थीं। लेकिन बहु-पुराण सत्र के चलते उनमें बलां की एनर्जी और जीने की उमंग पैदा हो गयी है, सौ साल से एक दिन भी कम नहीं।
तभी हंटरवाली की बहु आ गयी। एक कुशल अभिनेत्री की भांति वो अपनी मुख-मुद्रा करुणामयी सास में बदल देती है। आ गयी मेरी दुलारी बहु, सयानी बहु। बहु नहीं बेटी है मेरी। ईश्वर ऐसी बहु सबको दे। चल बहु। बड़ी भूख लगी है। आज कैंडी वाली आइसक्रीम खिला दे। बड़ी इच्छा हो रही है। पता नहीं कल हो न हो।  
बहु प्यार से सास को झिड़क देती है - छी, कैसी गंदी बात करती हैं। अभी तो आपको सौ साल और जीना है।
बहु सास को लेकर पार्क से चली जाती। इसी के साथ बाकी वृद्धाएं भी धीरे-धीरे खिसक लेती हैं। हंटरवाली को बहु औरेंज कैंडी ले देती है। वो बच्चों की तरह झूम उठती है। फिर आशीषों के साथ लंबी लंबी चुस्कियां। 
बंदा सोच रहा है। क्या क्या आइटम बनायें हैं कुदरत ने? जब तक बहुओं की बुराई न कर लें खाना हज़म नहीं होता।
बंदे का कई दिन बाद जाना हुआ पार्क में। गौर किया कि हंटरवाली ग्रुप में नहीं है। पार्क खाली-खाली और उदास सा दिखा। उत्सुकता बढ़ी। बर्दाश्त न हुआ। वहां नियमित रूप से टहलने वाली महिला से पूछ ही लिया।

उन्होंने बंदे को सर से पांव तक घूरा और फिर मुस्कुराईं - कोई उम्रदराज़ दो-तीन दिन न दिखें तो समझ जाया करो कि तस्वीर बन टंग गयीं दीवार पर। उस पर माला और नीचे धुआं-धुआं करती अगरबत्ती। सोचती हूं मैं भी एक बढ़िया सी तस्वीर एनलार्ज कराके माउंट करा लूं। जाने कब यमराज जी कहें, चल बहना, तेरा भी टाइम पूरा हुआ। हा, हा, हा....
बंदे को रोज़ टहलने वाले कई अन्य बुज़ुर्ग भी नहीं दिखे। वो गहरी फ़िक्र में डूब गया।
बंदा फैसला करता है कि कल से पार्क में नहीं, गलियों में टहलेगा। 
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प्रभात ख़बर दिनांक २९ फरवरी, २०१६ में प्रकाशित।
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