Friday, April 1, 2016

पढ़ना ही ज़िंदगी है।

- वीर विनोद छाबड़ा
अब तो ज़माना हो गया। शादी के बाद के शुरुआती पांच-छह साल बहुत अच्छे हुआ करते थे। होली के दूसरे-तीसरे दिन ससुराल जाते थे।

हमें देख कर सालियां खीं खीं करतीं और होली मुबारक कह कर आजू-बाजू हो जाया करती थीं।
सबसे ज्यादा खुश सास जी हुआ करती थीं। इसका कारण था हम भद्र पुरुष थे, एक अदद बिस्कुट और घूंट भर चाय से संतुष्ट होने वाले जीव।
अब ससुराल तो नहीं रहा लेकिन हमारी यह संतुष्टि वाली क्वालिटी आज भी यत्र-तत्र क़ायम है। जब तक कोई तीन बार नहीं कहता। हम चाय लिए हामी नहीं भरते। हमारे जानने वाले तो एक ही सांस में ही तीन बार कह देते हैं - चाय चाय चाय। हमें हां या ना कहने का मौका ही नहीं मिलता। यों बताते चलें कि आप हमें तीन बार चाय के लिए न भी पूछें तो कोई बात नहीं। दस मिनट बैठने के बाद हम चाय के हक़दार हो जाते हैं। यानि हम चाय खुद भी मांग सकते हैं। हमारे मिलने वालों को यह बात मालूम है।
देखिये न कहां से चले थे और किधर चल पड़े। विषयांतर होना हम भारतियों की ही विशेषता है।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे सासू मां की। वो कहा करती थीं। मेरा यह वाला जवाई सबसे सीधा है।
लेकिन मेमसाब का मुंह टेढ़ा हो जाता था। मुझे मालूम है कितने सीधे हैं।
सासू जी हंस देती थीं। नहीं नहीं, मेरा यह जवाई बहुत समझदार भी है।
लेकिन मेमसाब तो मेमसाब। यहां भी क्रेडिट लेने में आगे। अरे, घर के सारे काम तो मैं करती हूं। यह तो बस इधर उधर दोस्तों संग घूमा करते हैं। या फिर अख़बार पढ़ते हैं। फालतू में। 

अब उनको कौन समझाये कि पानी का बिल, बिजली का बिल, हाउस टैक्स जमा करना, एलआईसी, बैंक के काम, पीपीएफ, इनकम टैक्स और सबसे बड़ी बात पैसा कमाना यह भी काम हैं।
दुनिया आपको कितना ही बड़ा तुर्रम खां क्यों न समझे जब तक घरैतिन से कामकाज़ी होने का सर्टिफिकेट न मिले तब तक आप कुछ भी नहीं। इसलिए हम अपने को कभी सफल आदमी नहीं मानते। यही कहते हैं हम तो दुनिया की किताब अभी पढ़ रहे हैं। पढ़ना ही ज़िंदगी है।
यों कहा भी जाता है कि हर सफ़ल आदमी के पीछे किसी न किसी महिला का हाथ होता है। यह महिला पत्नी भी हो सकती है और मां-बहन भी।
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