-वीर विनोद छाबड़ा
वो अजीबो-गरीब इंसान था।
नाम था इंदर सेन जौहर। बोले तो आईएस जौहर। उसकी ज़िंदगी में हमेशा उल्टा-पुल्टा ही हुआ।
आये थे लाहोर से पटियाला एक शादी अटेंड करने। आज़ादी बस मिलने ही वाली थी। लेकिन सांप्रदायिक
दंगों ने वृहद रूप ले लिया। घर वापसी नहीं हो पाई। अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में
एम.ए. और एलएलबी की डिग्रियां लिए इधर-उधर भटकते रहे। सेंस आफ हयूमर, हाज़िर जवाबी और
मज़ाक करने की टाईमिंग शानदार थी। जहां बैठते स्थापित मान्यताओं और रिवाज़ों की जम कर
खिल्ली उड़ाई।
किसी ने सलाह दी कि जाओ
बॉलीवुड। अकलमदों की बहुत कमी है वहां। लेकिन रूप के. शोरी ने डबल एमए जौहर की कद्र
कामेडियन के रूप में की। 'एक थी लड़की' से उनका रास्ता
खुला और ज़िंदगी के आखिर तक उनकी पहचान एक कॉमेडियन की ही रही। और यही उनकी त्रासदी
रही। लेकिन सात समंदर पार हालीवुड में उन्होंने धूम मचाई। ढकोसलों के प्रति विपरीत विचारों के कारण वहां उन्हें उच्चकोटि का बुद्धिजीवी
माना गया। १९५८ में 'हैरी ब्लैक' और इसके बाद १९५९
में नार्थ वेस्ट फ्रंटियर, १९६२ में लारेंस आफ अरेबिया
और १९७८ में डेथ आन दि नाइल बहुत कामयाब उनकी फिल्में थी। हैरी ब्लैक के लिए विश्व
प्रसिद्ध ‘बाफ़टा’ पुरुस्कार हेतु नामांकित भी हुए। अमेरीकन टीवी
सीरीयल ‘माया’ ने भी उन्हें खासी
ख्याति दिलाई।
जौहर हमेशा विवादस्पद रहे।
दुनिया को अपनी नज़र से देखा और अपनी तरह बनाना चाहा। लेकिन उन्हें कोई गंभीरता से नहीं
लेता था। उनकी सोच व गंभीरता पर लोग हंसते थे, उपेक्षा करते थे।
कॉमेडियन जो ठहरे। कुछ ने उनकी मानसिकता पर सवाल उठाये और संदेह भी किये। घटिया भी
कहा। उन्हें मेहमान बनाने में संकोच करते। मित्रों ने किनारा करना शुरू कर दिया।
जौहर उन्हें अपने विचारों
के अनुरूप फिल्म बनाने के लिये फाईनेंस को तरसना पड़ा। लिहाज़ा कम बजट वाली फिल्में बनानी
शुरू कर दीं। पहली फिल्म ‘जौहर महमूद इन गोवा’ को देशभक्ति के
ज़ज्बे के कारण बाक्स आफिस पर बहुत सफल रहीं। सफलता सर चढ़ कर बोली। उन्होंने दर्शक को
मूर्ख समझने की गल्ती की। घटिया कहानी और ढीली स्क्रिप्ट। नतीजा यह हुआ कि इनकी प्रोड्यूस
और डायरेक्ट अगली फ़िल्में जौहर महमूद इन हांगकांग, जौहर इन कश्मीर, नसबंदी, जाय बांग्ला देश, फाईव राईफल्स आदि
न सिर्फ सुपर फ्लाप रही, बल्कि स्तर भी बहुत घटिया
रहा।
जौहर चाहते थे कि महमूद
के साथ उनकी जोड़ी हालीवुड के बाब होप और बिंग क्रोस्बी की तरह हिट हो। लेकिन महमूद
ने अपनी व्यक्तिगत पहचान और लोकप्रियता को जौहर की लटक के रूप में खोना नहीं चाहा।
किशोर कुमार की ओर हाथ बढ़ाया। लेकिन किशोर ने सिंगिंग कैरियर ज्यादा अहमियत दी।
जौहर की पहली शादी में
रमा बैंस से हुई थी। लेकिन जल्दी तलाक हो गया। इसके बाद उन्होंने चार शादियां और की।
अपनी खोज सोनिया साहनी के साथ लिव-इन रिलेशन में लंबे समय तक रहे। भारतीय रस्मो-रिवाज
के हिसाब से ऐसा करना अच्छा नहीं माना गया।
खुद को न्यूज़ में रखने
और वक़्त को भुनाने में जौहर माहिर थे। अलबत्ता उन्हें बड़ी कामयाबी कभी नहीं मिली।
वक्त को भुनाने की गरज़ से उन्होंने तेज रफ़तार से फ़िल्में बनायीं। कहानी का बहाव, गुणवत्ता आदि सब
हाशिये पर रखा। तभी तो बांगलादेश की आज़ादी पर महीने भर में ‘फाईव राईफल्स’और ‘जोय बांग्लादेश’बुरी तरह पिटीं।
उनकी समझ में आ गया देशभक्ति अच्छी बात है मगर उसे भुनाने की कला का ज्ञान उन्हें नहीं
है।
सन १९७५ में देश में इमरजेंसी लागू हुई। जौहर ने प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गांधी की नीतियों का मज़ाक उड़ाने वाली ‘नसबंदी’बनायी। खूब चर्चा
हुई। सरकार द्वारा प्रतिबंधित होनी ही थी। लेकिन इमरजेंसी हटते ही यह रिलीज हुई। देखने
के लिये भीड़ उमड़ पड़ी। मगर घटिया स्क्रीनप्ले और लचर डायरेक्शन से जनता का दिल जल्दी
भर गया।
मज़े की बात तो यह कि जौहर
की खुद की प्रोड्यूस और डायरेक्टेड फिल्में भले ही घटिया थीं लेकिन जब दूसरों के लिए
बढ़िया एक्टिंग की। हास्य की टाईमिंग और संवाद अदायगी के कारण वो पचास, साठ और सत्तर के
दौर पहली पंक्ति के तकरीबन सभी प्रोडयूसर-डायरेक्टर्स की पहली पसंद थे। उनकी हिट और
चर्चित फिल्मों में प्रमुख थीं, अफ़साना, नास्तिक, हम सब चोर हैं, बेवकूफ, तीन देवियां, दिल ने फिर याद
किया है, शागिर्द, पवित्र पापी, सफ़र, अनीता, राज, जोशीला, रूप तेरा मस्ताना, ख़लीफ़ा, प्रेम शास्त्र, आज की ताज़ा खबर, दास्तान, तांगे वाला, बनारसी बाबू, गंगा की सौगंध, त्रिमूर्ति, गोपीचंद जासूस, तीसरी आंख आदि।
देवानंद-हेमा मालिनी की मशहूर सुपर हिट ‘जानी मेरा नाम’में उनकी तिहरी
भूमिका रही। इसके लिये उन्हें श्रेष्ठ कामेडियन के फिल्मफेयर अवार्ड मिला। ‘शागिर्द’में उन पर फिल्माया
ये गाना बेहद लोकप्रिय हुआ -ओ बड़े मियां दीवाने ऐसे न बनो....। उनकी गंभीर शख्सियत
सिर्फ तभी नज़र आती है जब बतौर लेखक उन्होंने अफ़साना, दास्तान, करोड़पति, भाई-बहन, चांदनी चौक जैसी
फ़िल्में लिखीं। दूसरों के लिए अच्छी फ़िल्में भी डायरेक्ट कीं। मसलन, श्रीमतीजी, नास्तिक, श्री नगद नारायण, हम सब चोर हैं, मिस इडिया, बेवकूफ आदि।
जौहर की हाज़िर जवाबी को
मशहूर अंग्रेजी पाक्षिक ‘फ़िल्मफ़ेयर’ ने खूब भुनाया।
सवाल-जवाब का एक पूरा पेज उनके नाम कर दिया - आईएस जौहर क्वेशचन बाक्स। इस बाक्स की
रेटिंग बहुत ऊंची थी। जिसके सवाल को जवाब के लायक चुना गया समझिए वो धन्य हो गया। सवाल
अक्सर टेढ़े-मेढे़ और कुतर्की होते थे। लेकिन जौहर ने दहला मार कर प्रश्नकर्ता को लाजवाब
कर दिया। बढ़िया सवाल के लिये पचास रुपये नकद का पुरूस्कार भी था। इस बाक्स की लोकप्रियता
का आलम यह था कि फिल्मफेयर के स्टैंड पर आते ही पाठक सबसे पहले इसी पेज को खोलते थे।
जौहर के बारे में एक मज़ेदार
किस्सा है। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। इलस्ट्रेटेड वीकली की संपादक खुशवंत सिंह के
हवाले की। वो चाहते थे कि वीकली में इसकी श्रृंखला प्रकाशित हो। खुशवंत सिंह ने इसे
पढ़ा और यह कह कर फ़ेंक दिया कि जौहर 'बीमार' आदमी है। इसका
ज्यादातर हिस्सा दूसरी महिलाओं के साथ सेक्स संबंधों पर था। उनके नाम भी साफ-साफ लिखे
थे। और वो टॉप पोजीशन पर थीं। कौन मुसीबत मोल ले। इस बात का खुलासा तब हुआ जब कुछ समय
बाद खुशवंत सिंह ने अपनी किताब 'वीमेन एंड मेन इन माई लाईफ' में जौहर के नाम
एक प्रोफ़ाईल लिखा।
जौहर ने साधु-बाबा आदि
को ढोंगी और समाज का दुश्मन की श्रेणी में रखा। उनका ख्याल था कि आमजन को तो वो जाहिल
बनाते ही हैं, तमाम बड़े-छोटे फ़िल्मी लोग भी फंसे रहते हैं। यह साबित करने के
लिए कि यह सब मिथ्या और ढोंग है, जौहर ने एक काल्पनिक आकाशी
बाबा लांच किया और खुद को उनका चेला बताया। वो रोज बताते थे कि आकाशी बाबा ने पिछली
रात उनके सपने में आकर कौन सी भविष्यवाणी की है।
एक दिन जौहर ने बताया कि
कल वो अपने आकाशी बाबा के पास परलोक चले जायेंगे। सबने इसे भद्दा मज़ाक कहा। लेकिन जौहर
सचमुच ही अगले दिन स्मृति शेष हो गये। शायद यह संयोग था।
इस बिगड़े हुए विद्वान्
का जन्म १६ फरवरी, १९२० को तोलागंज, पाकिस्तान में
हुआ था और मुत्यु १० मार्च, १९८४ को बंबई में।
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नवोदय टाईम्स दिनांक १६ अप्रैल २०१६ में प्रकाशित।
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जिंदाबाद