Saturday, April 2, 2016

आख़िर वसूल ही ली अपनी रक़म।

- वीर विनोद छाबड़ा
पुराने दौर के ज्यादातर शायर और फिल्म लेखक फक्कड़ी के दौर से गुज़रे हैं। तभी तो एक से बढ़ कर एक बेहतरीन नग़मे और अफ़साने उन्होंने लिखे हैं। चाहे वो मुहब्बत की बात हो या फकीरी की। बड़ी कशिश और बहुत दर्द होता था उनकी क़लम में। यूं ही कोई साहिर, शैलेंद्र, राजेंद्र सिंह बेदी और प.मुखराम शर्मा नहीं बन जाते थे।

हमने कहीं सुना है, और पढ़ा भी है कि आज के दौर के मशहूर लेखक-शायर जावेद अख़्तर ने भी फ़कीरी का दौर बहुत नज़दीक से देखा और झेला है। भले ही वो मशहूर शायर जां निसार अख़्तर के बेटे थे लेकिन ज़िंदगी अपनी खुद बनाई। ज़मीन से जुड़ कर और संघर्ष करके बड़े बने।
उन दिनों वो ज़बरदस्त कड़की के दौर से गुज़र रहे थे। जैसा भी काम मिला, बाखुशी कर लिया। क्लैपर बॉय का काम भी किया। कई जोड़ी चप्पलें घिस गईं। खाने के भी लाले पड़े। मगर कुछ बात बनती नहीं दिखी। ऐसे दौर में वो मशहूर शायर साहिर लुधियानवी के द्वारे गए। मशहूर था कि साहिर अपने द्वारे आये मेहनतकश लोगों को मायूस नहीं करते थे। जावेद को भी मना नहीं किया। जावेद ने साहिर साहब से सौ रूपए मांगे।
Sahir
साहिर साहब ने सौ रुपया दिया। मगर शर्त जोड़ दी कि जब क़ाबिल हो जाओ तो पैसा लौटा ज़रूर देना। पैसा बड़ी मेहनत से कमाया जाता है। दरअसल, साहिर जानते थे कि जावेद में लियाक़त है। ज़रूर इसका सितारा एक दिन चमकेगा और वो भी बहुत ऊंची मयार पर।
जावेद ने वादा भी किया कि वो इस अहसान को भूलेंगे नहीं। क़ाबिल होने पर सबसे पेश्तर इस उधारी की वापसी करेंगे। और वाकई कुछ  ही अरसे बाद सलीम खान के साथ जावेद अख्तर बहुत बड़े फ़िल्म राईटर बन गए। हर तरफ चरचे होने लगे, सलीम-जावेद की जोड़ी के। हाथी मेरे साथी, सीता और गीता, अंदाज़, शोले, शक्ति आदि दर्जनों फ़िल्में लिखीं उन्होंने। उनकी जोड़ी हर फ़िल्मकार की पहली पसंद होने लगी।
एक दिन एक महफ़िल में साहिर और जावेद अख़्तर टकरा गए। गपशप के दौरान साहिर ने याद दिलाया - बरखुरदार, मेरा सौ रुपया तो वापस कर दो।
जावेद जोर से हंसे। ज़रूर जनाब। उन्होंने समझा साहिर मज़ाक कर रहे हैं। साहिर जैसे अमीर शायर के लिए सौ रूपए क्या मायने?
दरअसल जब आदमी अमीर हो जाता है तो उसके लिए पैसे की वैल्यू कम हो जाती है। जावेद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। सोचा, इतनी छोटी सी मुझसे देते न बनेगी और साहिर से लेते न बनेगी।
साहिर ने इसके बाद भी जावेद को जब-तब कई बार याद दिलाया। भाई, अपना वादा तो पूरा करो। जावेद हमेशा मज़ाक समझ कर हंस दिए। 
नियति के खेल निराले होते हैं। जिस वक़्त जिसकी ज़्यादा ज़रूरत होती है उसे उठा लेती है। साहिर साहब दुनिया से रुखसती फ़रमा गए।
जावेद अख्तर सहित उनके तमाम मुरीद अस्पताल पहुंचे। माहौल बहुत ग़मगीन था। साहिर साहब के नज़दीकी होने की वज़ह से आख़िरी वक्त के कुछ फ़र्ज़ उठाने की ज़िम्मेदारी जावेद अख़्तर ने उठा रखी थी। साहिर साहब का नश्वर शरीर एम्बुलेंस से उनके घर लाया गया। बाकी की रस्में भी पूरी हुईं।

अगले रोज़ जावेद के घर एक शख्स आया। जावेद ने उसे सर से पांव तक देखा। भाई, कौन हो और क्या चाहते हो?
Javed and Salim
उसने बताया कि वो उस एम्बुलेंस का ड्राईवर है जिससे साहिर साहब का जिस्म अस्पताल से घर लाया गया था। लेकिन उसे उसकी मेहनत की मज़दूरी नहीं मिली थी।
जावेद ने सोचा, तमाम लोग मौजूद रहे थे, किसी ने दे दिए होंगे। यह शख्स झूठ बोल रहा है। लिहाज़ा उन्होंने मज़दूरी देने से मना कर दिया।
मगर ड्राईवर की भी दाद देनी पड़ेगी कि उसने हिम्मत नहीं हारी। पीछे ही पड़ा रहा। आये दिन पहुंच जाता था। उसे इस बात से कोई वास्ता नहीं था कि जिसका जिस्म वो एम्बुलेंस पर लाद कर लाया था वो एक अज़ीम शख़्सियत का था और जिससे वो मेहनताना मांग रहा है वो मशहूर फ़िल्म लेखक जोड़ी सलीम-जावेद के जावेद हैं। कोई हराम की रक़म तो मांग नहीं रहा हूं। मेहनत की है।
एक दिन जावेद तंग आ गए। ड्राईवर को सौ रुपया दे ही दिया। फिर सोचा, मगर कोई वाज़िब वज़ह भी तो होनी चाहिए। ज़हन पर जोर दिया। होंटों पर चौड़ी मुस्कान तेरी। यस, याद आया। खुद से बोले, बड़े भाई साहिर ने मरने के बाद भी नहीं छोड़ा। आखिर वसूल ही ली अपनी रक़म। और कुछ नहीं तो एम्बुलेंस के ड्राईवर ही बन कर आ गए। भाई वाह!
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Published in Navodaya Times dated 02 April 2016
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