-वीर विनोद छाबड़ा
चार घर छोड़ कर रहते हैं बंदे के पड़ोसी लल्लन जी। परचून की छोटी-मोटी
दूकान हैं। दो बेटियां हो चुकी हैं। लेकिन बेटे की चाहत बाकी है। खानदान को अपना चिराग़
चाहिए। उनकी पत्नी लल्ली की भी यही इच्छा है। दीया बत्ती वाला कोई तो हो।
लेकिन अगर तीसरी बार बेटा न हुआ और 'तीसरी' आ गई तो? इस यक्ष प्रश्न का समाधान भी खोज
लिया है दोनों ने। लल्ली चौधरी पहलवान के खानदान से है, बिलकुल इकलौती। एक लल्ली को छोड़ कर पिछली कई पीढ़ियों से लड़के पैदा करने की 'परंपरा' है। इसीलिए लल्ली गर्भ धारण करते
ही मायके आ गई है। यहां का साया बेटा पैदा करने के अनुकूल है। लल्लन को भी परेशानी
नहीं। दुकान बंद करते ही पहुंच जाते हैं ससुराल।
लल्लन-लल्ली सिर्फ 'परंपरा' पर निर्भर नहीं हैं। सुबह से रात देर तक कोई न कोई तंत्र-मंत्र जपते रहते हैं।
हकीम, वैद्य, बाबा-सन्यासी, सिद्ध पुरुष सभी से निरंतर मंत्रणा
भी चल रही है।
होली के होली नहाने वाले लल्लन पिछले महीने भर से रोज़ सुबह पांच
बजे ठंडे पानी से नहा रहे हैं। साथ में 'कारे
कजरारे...' का राग भी अलापते हैं। ठंडक दूर
भागती है। नींद पड़ोसियों की ख़राब होती है। लेकिन कोई बुरा क्यों बने? पहलवान जी का दामाद है। और फिर सबको प्रयोजन का ज्ञान है। कोई ऐतराज करके बनते
काम में रोड़ा क्यों अटकाए भला? कल को
बेटा न होकर बेटी हो गई तो सारा ठींकरा उसके माथे फूटेगा न!
लल्लन सुबह-शाम आकाश की ओर मुंह उठा कर विचित्र मंत्रों का उच्चारण
करते हुए चिंघाड़े, अर्थात ईश्वर से सीधा संपर्क।
छत्तीस घंटे का प्रचंड यज्ञ किया। छत्तीस निरीह पशु-पक्षियों की बलि दी। छत्तीस भिखारियों
और ब्राह्मणों को लंच-डिनर कराया। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा के चक्कर लगाये। दरगाहें भी न छोड़ीं । ऊंचे पर्वतों से मंगायी
दुर्लभ जड़ी-बूटियों का सेवन किया।
परंतु नियति के लिखे को कोई जुगाड़ आज तक बदल सका क्या? तीसरी बार भी ‘तीसरी’ जन्मी।
पहलवान जी तो उछल पड़े। बिलकुल लल्ली समान। इसे कहते हैं कुदरत
का करिश्मा। वो तो मिठाई बांटने निकल पड़े। लल्ली ने भी करिश्मा समझ तस्सली कर ली कि
जीरोक्स कॉपी आई है।
लेकिन लल्लन जी इतनी जल्दी हार मानने वाले कहां? गहरे अवसाद में डूब गए। बंदे ने सांत्वना दी - समझो कि साक्षात 'लक्ष्मी जी' पधारी हैं।
अचानक बंदे को याद आता है, एक पुराने सीरियल का प्रोमो। उसमें बेटे के जन्मने की बड़ी शिद्दत से प्रतीक्षा
कर रहे एक सज्जन को यह जान कर बहुत हुई थी कि बेटी हुई है।
पिता, परिवार
व समाज की तमाम उपेक्षाओं और बाधाओं का सामना करते हुए वो लड़की बड़ी हुई। अपने ज्ञान
व साहस के बूते एक दिन एक रियल्टी शो की 'हाट सीट' पर जा बैठती है। दस करोड़ से बस एक कदम दूर। एंकर पूछता है - दुनिया को कुछ कुछ कहना है? वो लड़की कैमरे की आंख में झांकते हुए पूरे यकीन के साथ बनावटी और बदसूरत उसूलों
पर कटाक्ष करती है - बधाई हो, बेटी
जन्मी है!
यह सुनते ही गहरे अवसाद में डूबे लल्लन जी के जैसे ज्ञान चक्षु
खुल गए हों। वो मुस्कुराये - इसे कहते हैं एक बेआवाज़ ज़न्नाटेदार तमाचा।
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Published in Prabhat Khabar dated 18 April 2016
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Bahut khoob!
ReplyDeletebahut sundar kahani, sikh aur jagrook karne wali
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20 -04-2016) को "सूखा लोगों द्वारा ही पैदा किया गया?" (चर्चा अंक-2318) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआसान नहीं है छोड़ना आज भी बेटा का मोह.. गांव छोडो शहर में पढ़े लिखे में जाने क्या-क्या नहीं करते लड़के होने की खातिर ....धीरे-धीरे जाएगा यह वर्षों की मानसिकता ...
ReplyDeleteरोचक व प्रेरक प्रस्तुति