-वीर विनोद छाबड़ा
अरसा हो चुका था 'मुगल-ए-आज़म'
को शुरू हुए। लाखों रुपया खर्च हो चुका था। मगर कोई निशान नज़र नहीं आ रहा था कि
कब ख़त्म होगी। रोज़ एक नया आईडिया निर्माता-निर्देशक के.आसिफ के दिमाग़ में पैदा होता
और फ़िल्म आगे बढ़ जाती। आशंका पैदा हो गई कि ऐसा न हो कि इसके हीरो-हीरोइन दिलीप और
मधुबाला बूढ़े हो जायें और फ़िल्म तब भी पूरी न हो। फिनांसर शापूरजी का दिवाला निकलवा
कभी भी निकल सकता था।
आसिफ़ के कानों तक सब बातें
पहुंचा करती थी। लेकिन आसिफ़ बड़े इत्मीनान से सब सुनते। मुट्ठी में सिगरेट को
दबाते। एक गहरा और लंबा कश लगाते। और फिर चुटकी बजा कर उसकी राख झाड़ते हुए बड़े गर्व
से कहते - मियां, शाहकार यूं ही नहीं बना करते। दिमाग़ लगता है और वक़्त भी। जब
रिलीज़ होगी तब देखना।
एक बार पेंच फंस गया। सीन कुछ यों लिखा गया था। शहज़ादा सलीम
और अनारकली के दरम्यान बेपनाह मोहब्बत है। उस दिन वो महल के बगीचे मिलते हैं। मुहब्बत
का इज़हार करते हैं। शाम होने को आई है। तानसेन ने दीपक राग अलापा है। चिराग़ जल उठे
हैं।
आसिफ़ इन लम्हों को यादगार बनाना चाहते हैं। संगीतकार नौशाद अली
से मशविरा किया। कोई आला दर्जे की आवाज़ चाहिए बैकग्राउंड में। चिराग़ तो जलें ही दिलीप
और मधुबाला के दरम्यां बढ़ रही दूरियां नज़दीकियों में तब्दील हो जाएं। सोयी हुई मुहब्बत
जाग उठे। इंडस्ट्री में हाहाकार मच जाये। आग लग जाये। पब्लिक अश अश कर उठे। यानि आवाज़
से पूरा सीन लिफ़्ट हो जाये।
नौशाद अली ने सोचा यह तो रेगिस्तान में हरियाली पैदा करना चाह
रहे हैं। मुश्किल है। लेकिन के.आसिफ़ बॉस हैं। नौशाद ने सिर हिला दिया। मेरी नज़र में
है एक ऐसी ही शख़्सियत, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां। शास्त्रीय संगीत और गायन की नामचीन
हस्ती हैं। लाहोर के पास कसूर में जन्मे हैं। पटियाला घराने से ताल्लुक रखते हैं। पार्टीशन
हुआ तो पाकिस्तान चले गए थे। लेकिन वहां का माहौल रास नहीं आया, न उनको और न गायन-संगीत
को। लौट आये हिंदुस्तान। उस वक़्त मोरारजी देसाई गृहमंत्री थे। उन्होंने खां साहब को
हिंदुस्तान में रहने का परमानेंट वीज़ा दे दिया।
आसिफ़ ने कहा, बहुत अच्छे। तो बुला
लो उन्हें।
नौशाद अली ने कहा - खां साहब बड़े आदमी हैं। बड़े कलाकार हैं।
यूं बुलावे पर नहीं आएंगे। अहम को धक्का लगता है। आसिफ़ खुद जाकर उन्हें कहें तो वो
ज़रूर तैयार हो जायेंगे।
दोनों जा पहुंचे खां साहब के द्वारे। उन्हें बताया कि उनकी आवाज़
की फिल्म में क्या अहमियत है। फ़िल्म का मयार बढ़ जाएगा।
खां साहब ने बड़े ध्यान से आसिफ की बात सुनी। मगर बात ख़त्म ही
हत्थे से उखड़ गए - जाओ मियां। मज़ाक करते हो। हम सिनेमा के लिए गाएंगे? नामुमकिन। आप हमारा, हमारे गायन और संगीत
का ऊंचा मयार देखो। हमें गिराने की कोशिश मत करो।
आसिफ़ उन दिनों जब सेट पर होते थे तो खुद को ख़ुदा समझते थे। उनका
कहा पत्थर की लक़ीर होता था। कोई न कहता या उनसे जिरह करता तो वो आगबबूला हो उठते। लेकिन
यह तो शुक्र था कि आज 'न' सुनते वक़्त सेट आसिफ़ पर नहीं थे। यह खां साहब का घर था।
आसिफ़ ने किसी तरह अपने गुस्से को जज़्ब किया। आज वो अपनी फिल्म
की बेहतरी के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे।
इधर खां साहब घर आये मेहमान को भगा भी नहीं सकते थे। तहज़ीब भी
आखिर कोई चीज़ है। सोचने लगे कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाया जाए। तभी उनको तरकीब
सूझी। बहुत ऊंची रकम की मांग करता हूं। सुन कर भाग खड़े होंगे मियां।
नौशाद साहब बहुत डरे हुए थे। उन्हें मालूम था कि खां साहब मानेंगे
नहीं और आसिफ़ महा के ज़िद्दी। कोई बड़ा हंगामा न खड़ा हो जाए।
कभी हिम्मत न हारने वाले आसिफ ने हर क़ीमत पर हां करवाने का मन
बनाया। बोले - खां साहब, मैं कोई फिल्म नहीं बना रहा। तस्वीर बना रहा हूं। बहुत बड़ा शाहकार।
मुंह मांगी क़ीमत दूंगा।
खां साहब कीमत बोल कर खुद को छोटा साबित करना नहीं चाहते थे।
लेकिन जब अहसास हुआ कि आसिफ़ ने खूंटा गाड़ लिया है। यूं भागने वालों में से नहीं है।
तब उन्होंने ब्रह्मास्त्र चलाने का फैसला किया। बोले - तो ठीक है आसिफ़। मैं गाऊंगा
ज़रूर। रुपया पच्चीस हज़ार फी गाना वसूल करूंगा।
नौशाद अली समझ रहे थे कि खां साहब बहुत ज्यादती कर रहे हैं।
उन दिनों रफ़ी और लता जैसे क्लास-वन सिंगर की फीस प्रति गाना पांच सौ रूपए हुआ करती
थी। वो इस बावत कुछ कहने को मुंह खोलने को थे ही कि धुन के पक्के आसिफ़ ने अपने ट्रेडमार्क
अंदाज़ से मुट्ठी में दबी सिगरेट का लंबा कश खींचा और चुटकी बजाते हुए राख झाड़ी - मंज़ूर
है। अब चलिए खां साहब। रिकॉर्डिंग करें।
अब तो फंस गए उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब। वचन दे चुके थे।
उनके सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं रहा।
ख़ैर रिकॉर्डिंग शुरू हुई। खां साहब के साथ संगत के लिए मशहूर
तबलावादक निजामुद्दीन खां थे। खां साहब ने ऊंचा आलाप लिया।
आसिफ़ बिगड़ गए - यह क्या है खां साहब? आलाप थोड़ा नीचे रहे
और रेशमी हो।
खां साहब भी बिगड़ गए - यह फ़िल्मी आदमी मुझे समझा रहा है! मौसिक़ी
के बारे क्या तमीज़ इसे? इसीलिए फिल्मों में गाने से मना करता हूं।
तब नौशाद अली ने दख़ल दिया - खां साहब, आप को फ़िल्म की सिचुएशन
नहीं मालूम है। मुहब्बत में मुब्तिला हैं दो प्रेमी। बैकग्राउंड में तानसेन दीपक राग
गा रहे हैं। आपकी आवाज़ तानसेन को मिलनी है।
खां साहब को दिलीप कुमार और मधुबाला पर फ़िल्माये कुछ प्रेम दृश्य
भी दिखाए गए। दिलीप और मधुबाला से रूबरू मुलाक़ात भी कराई गई। मधुबाला को देखते कर खां
साहब के होशो-हवास उड़ गए - निज़ामुद्दीन, यह लड़की तो बलां की
ख़ूबसूरत है।
बहरहाल खां साहब मुतमईन हुए। गाना रिकॉर्ड हुआ - प्रेम जोगन
बनके सुंदरी…
के.आसिफ को खां साहब का आलाप और आवाज़ इतनी पसंद आई कि एक और
गाना भी रिकॉर्ड कराया - शुभ दिन आयो राज दुलारा…। राग सोहनी और रागेश्वरी
पर आधारित थे दोनों गाने।
प्रेम जोगन…गाना बहुत पसंद किया
गया। दिलीप-मधुबाला में महा शीत-युद्ध चल रहा था। एक-दूसरे से बात तक नहीं होती थी।
दिलीप ने मयूर पंख से मधुबाला को स्पर्श करके मुहब्बत का इज़हार कुछ इस तरह से किया
कि देखने वाले सीट से उछल पड़े। वाह, मियां वाह। मालूम न
था कि मुहब्बत का मुज़ाहिरा यूं भी होता है। बिलकुल नया और नायाब अंदाज़।
आज भी जब चुनींदा दृश्य सहित श्रेष्ठतम प्रेम गीतों की याद होती
है तो इसे ज़रूर शामिल किया जाता है।
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब ने हैदराबाद में २३ अप्रेल १९६८
को इंतकाल फ़रमाया। उस वक़्त वो ६६ साल के थे। वो कहा करते थे कि अगर हर परिवार में एक
बच्चे को हिंदुस्तानी क्लासिकल म्युज़िक सिखाया गया होता तो यकीनन पार्टीशन न हुआ होता।
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Published in Navodaya Times dated 09 April 2016
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Lucknow - 226016
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