- वीर विनोद छाबड़ा
शमशाद बेग़म का नाम
जुबां पर आया नहीं कि गीत-संगीत की महफ़िल जवां हो उठती है। कान में बुलबुल जैसी कोई
मधुर मधुर आवाज़ रस घोलने लगती है। मंदिर में जैसे घंटियां सी बजने लगती हैं।
१४ अप्रैल १९१९ में
लाहोर के जिस ऑर्थोडॉक्स विचारों वाले पंजाबी मुस्लिम परिवार में शमशाद बेग़म जन्मी
थीं, उसमें गीत-संगीत को दूर से ही सलाम था। लेकिन जाने कहां से शमशाद
को ये रोग पकड़ गया। घर में सख्त मनाही थी। लिहाज़ा स्कूल की प्रार्थना सभा में गाकर
अपना शौक पूरा किया। सबसे मुखर और अलग आवाज़ की वज़ह से जल्द ही वो हेड सिंगर बना दी
गई।
थोड़ा हौंसला मिला तो
शमशाद ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी यदा-कदा गाया। ऐसे ही एक प्रोग्राम में उस
दौर की मशहूर रिकॉर्डिंग कंपनी जेनोफ़ोन के संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर ने उन्हें एक
बार सुना।
गुलाम हैदर के दिल
को छू गई शमशाद की आवाज़। फ़ौरन ही रुपया १५ प्रति गाने की दर से १२ गानों का कॉन्ट्रैक्ट
ऑफर किया। मगर शमशाद के पुरातनपंथी अब्बा मियां हुसैन बक्श को महिलाओं की आज़ादी और
गाने-बजाने पर सख्त ऐतराज़ था। वो बामुश्किल इस शर्त पर तैयार हुए कि शमशाद हर वक़्त
परदे में रहेंगी और तस्वीर भी नहीं खिंचवाएंगी। लोग सिर्फ उनकी आवाज़ सुन पाएंगे। यही
वजह रही कि १९७० तक बहुत कम लोगों ने उनके चेहरे को देखा।
इधर निर्देशक दलसुख
पंचोली ने बेगम की आवाज़ लाहोर रेडियो पर सुनी तो दीवाने हो गए। उन्होंने बेगम को गाने
के साथ-साथ अभिनय के लिए भी मना लिया। लेकिन अब्बा हुज़ूर फिर बीच में दीवार बन कर खड़े
हो गए।
१९३४ में शमशाद बेग़म
पेशे से एक वकील गणपत लाल बट्टो को दिल दे बैठीं। दोनों तरफ़ के परिवारों में भारी बखेड़ा
खड़ा हो गया। वो ज़माना तो बहुत ही कंज़र्वेटिव था। ऐसा सोचना तक गुनाह था। शमशाद की उम्र
ही क्या थी? बस १५ साल। लेकिन मोहब्बत के सामने सबको झुकना पड़ा। शमशाद पूर्व
की शर्तों पर परदे में ही गाती रहीं।
१९४० में महबूब खान
ने शमशाद के पति गणपत लाल को समझाया। यार तुमने यहां लाहोर में अपनी बेग़म कुएं में
बंद कर रखी है। वहां बंबई का विशाल समुंद्र कबसे उसका इंतज़ार कर रहा है। गणपत बड़ी मुश्किल
से छह बंदो के फ्लैट और मुफ़्त कार के ऑफर पर तैयार हुए।
बेगम के शुरूआती गाने
पंजाबी में रहे - चीची विच पाके छल्ला…मेरा हाल वेख के.…कंकण दी फसलां…(यमला जट्ट -१९४०)
यूनीक मखमली आवाज़ की
वजह से बेगम को बंबई में स्थापित होने में कतई वक़्त नहीं लगा। उन्होंने यमला जट्ट,
खजांची, शिकार, शहंशाह, बहार, मशाल, मिस इंडिया,
मिस्टर एंड मिसेस ५५, हावड़ा ब्रिज, १२ओ क्लॉक,
मुसाफ़िरखाना, पतंगा, मुगल-ए-आज़म, सीआईडी आदि अनेक फिल्मों
के लिए गाया। शमशाद के जलवे का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि तमाम फ़िल्मकार लता
और आशा को भी लंबे समय तक शमशाद की स्टाइल में गवाते रहे।
बेगम का व्यस्तम समय
१९४०-५५ के बीच रहा। १९५५ में पति की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया। वो अपनी पुत्री उषा
रात्रा और दामाद ले.कर्नल योगेश रात्रा के घर चली गईं।
दो साल की गुमनामी
के बाद शमशाद ज़िंदगी में वापस आयीं और फिर १९६८ तक गाती रहीं।
उस दौर के सभी संगीतकारों
और गायक-गायिकाओं के साथ शमशाद के बहुत अच्छे रिश्ते रहे। शमशाद के कुछ मशहूर नग्मे
हैं - लेके पहला पहला प्यार…कहीं पे निगाहें कहीं
पे निशाना…बूझ मेरा क्या नाम
रे.…(सीआईडी), कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र.…(आर-पार), ओ गाड़ी वाले गाडी धीरे
हांक रे.…होली आई रे कन्हाई रंग छलके…(मदर इंडिया),
मेरे पिया गए रंगून…(पतंगा), छोड़ बाबुल का घर.…किसी के दिल में रहना
था.…(बाबुल), कजरा मोहबत वाला…(किस्मत), तेरी महफ़िल में किस्मत
आजमा के.…(मुगल-ए-आज़म), सैयां दिल में आना
रे.…(बहार), रेशमी सलवार कुरता जाली दा.…(नया दौर), धरती को आकाश पुकारे…(मेला), एक दो तीन मौसम है
रंगीन…(आवारा), बचपन के दिन भुला न देना…(दीदार), दूर कोई गाये धुन ये
सुनाये…(बैजू बावरा)।
सत्तर के दशक में बेगम
को फ़िल्मी राजनीती से बड़ी उलझन रही। इसीलिए छोड़ दिया गाना। बेगम की अमर आवाज़ का भारत
सरकार २००९ में सम्मान किया। उन्हें पदमभूषण से नवाज़ा।
शमशाद बेगम कहा करती
थीं- गायक कभी नहीं मरता। उसकी आवाज़ अमर है। वही उसकी पहचान है।
शायद यही वज़ह है कि
रेट्रो दुनिया में सबसे ज्यादा शमशाद बेगम के गाये नग्मे ही छाए रहते हैं। लंबी बीमारी
से जूझते हुए २३ अप्रैल, २०१३ को आवाज़ की दुनिया की पहली बुलबुल हमेशा के लिए खामोश हो
गई। उस वक़्त वो ९४ साल की थीं।
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Published in Navodaya Times dated 23 April 2016
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