- वीर विनोद छाबड़ा
२७ जनवरी १९६३ को दिल्ली
का नेशनल स्टेडियम। दर्शकों से खचाखच भरा हुआ। इनमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी
मौजूद थे। लता जी ने गाना शुरू किया - ऐ मेरे वतन के लोगों…
तो अगले आठ मिनट तक पिन ड्राप साइलेंस रहा। और आखिर में स्टेज के अंधरे कोने से
अचानक कोरस उठा 'जय हिंद की सेना...' सब हैरान रह गए। ज़बरदस्त
इम्पैक्ट पड़ा इसका। माहौल में बिजली सी कौंधी हो जैसे। तालियों के ज़बरदस्त गड़गड़ाहट।
आकाश गूंज उठा। नेहरू जी भी भावुक हो उठे। आंखों में आंसू आ गए।
अमर यादें कभी नहीं
मरतीं। हिस्ट्री ही बन गया यह गाना। आज भी वो शब्द, वो आवाज़ और संगीत की
कशिश, दिलों में अपनी मूल भावना के साथ ज़िंदा है।
और जैसा कि होता है
कि हर मशहूरी के पीछे कुछ विवाद भी होते हैं। इस गाने के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
इस कार्यक्रम के संयोजक
दिलीप कुमार थे। चितलकर दिलीप कुमार की 'आज़ाद' के लिए हिट म्युज़िक
दे चुके थे। उन्होंने चितलकर को याद किया।
वक्त कम था। जल्दी
से कोई नायाब गाना चाहिए था। चितलकर को कवि प्रदीप की याद आई। दिलीप अभिनीत 'पैगाम' में दोनों का साथ हो
चुका था - इंसान का इंसान से हो भाई चारा...।
प्रदीपजी ने माज़रा
सुना और मज़ाक किया। फ़ोकट में लिखने की बात होती है तो मेरी याद आती है। खैर शुरू हुई
मैराथन क़वायद। सौ से ज्यादा छंद लिखे गए। आखिर में छह ही फाईनल हुए। प्रदीपजी ने पूछा
कि गायेगा कौन? चितलकर ने आशा भौंसले का नाम लिया। प्रदीप ने पूछा कि लता क्यों
नहीं? दुनिया जानती थी कि चितलकर और लता में बहुत गहरी अनबन है। यों
इसके पीछे एक नहीं, कई कहानियां हैं।
Pradeep, Lata & C.Ramchandra |
बहरहाल, प्रदीप ने ज़िम्मेदारी
ली कि लता को मना लेंगे। लता भड़क गईं, चितलकर का नाम सुनते
ही। इधर चितलकर ने आशा के साथ रिहर्सल में दिन-रात एक कर दिए। एक दिन सहसा ही लता को
इस प्रोग्राम की अहमियत का अहसास हुआ। वो चितलकर से सुलह करने चल दीं। लताजी बड़ी गायिका
थीं। चितलकर से ना कहते नहीं बना। सुना है इसके पीछे दिलीप कुमार का हाथ था,
जो अपनी छोटी बहन लता से हर साल राखी बंधवाते थे। इधर चितलकर परेशान हो गए कि आशा को कैसे मना करें? दिल्ली का टिकट भी
आ चुका था। उन्हें एक आईडिया सूझा। लता और आशा दोनों गायेंगी। रिहर्सल भी कराई। लेकिन
नियति का अपना खेल है। एकाएक आशा बैक-आउट कर गईं।
लताजी को रिहर्सल के
दौरान ही अहसास हो गया कि कोई हिस्ट्री बनने जा रही है। वो पूरा श्रेय लेना चाहती थीं।
आशा को समझाया कि तुम बीमारी का बहाना कर दिल्ली जाने से मना कर दो।
आशा ने चितलकर से कहा
- दीदी नहीं चाहती कि मैं गाऊं।
एक इंटरव्यू में लताजी
कहा भी कि शुरू में मैंने गाने मना कर दिया था। दरअसल रिहर्सल के लिए समय कम था। मगर
बाद में मैनेज हो गया।
अब सच क्या है?
कोई नहीं जानता। जितने मुंह, उतनी बातें। राजू भर्तन, शशिकांत किणीकर और
चितलकर की बायोग्राफी सबके अपने पक्ष हैं।
और एक प्रंसग। किसी
ने कवि प्रदीप पर भी दावा कर दिया कि 'ए मेरे वतन के लोगों...'
उनका नहीं है। लेकिन सांच को आंच नहीं। केस लंबा चला लेकिन प्रदीपजी के पक्ष में
निर्णीत हुआ। एक त्रासदी भी। कवि प्रदीप को उक्त प्रोग्राम में न्यौता नहीं दिया गया
था। एक अक्षम्य भूल।
तो यह थी हिस्ट्री
की बैक हिस्ट्री। लेकिन यह बात आज भी सोचने पर मजबूर करती है कि लता की जगह अगर आशा
होतीं तो क्या असर पड़ता? क्या वेदना में कोई कमी होती? जनमानस के दिल पर इफ़ेक्ट
नहीं पड़ता? हिस्ट्री नहीं बनती? सोचिये!
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Published in Navodaya Times dated 20 April 2016
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