- वीर विनोद छाबड़ा
आज सचिन ने ज़िंदगी के ४३ साल पूरे कर लिए हैं। बधाई हो।
हम खुशकिस्मत हैं कि सचिन को किशोरावस्था से जवान होते देखा है। उसका संपूर्ण कैरियर
देखा है। एक एक रन बनते हुए देखा है और मैदान में उसे रोकने के लिए झूझते-हांफते हुए
फील्डरों को भी देखा है।
उन दिनों वो किशोर थे। इंग्लैंड के विरुद्ध एक दिनी मैच में जब वो छत्तीस रन की
आंधी समान एक छोटी सी पारी खेल कर लौट रहे थे तो एक अंग्रेज़ कमेंटटर कह रहा था कि उसने
भविष्य का ब्रैडमैन देख लिया है।
१९९१ में ऑस्ट्रेलिया के मैदान पर एक टेस्ट मैच के दौरान जब वो विकेट के चारों
ओर बेतरह प्रहार कर रहे थे तो क्रिकेट के 'डॉन' डॉन ब्रैडमैन ने अपनी पत्नी को आवाज़ दी - यह देखो, ये लड़का बिलकुल मेरी
तरह ही परफॉर्म कर रहा है।
हमें उन दिनों की याद भी है जब सचिन का सस्ते में आउट होने का मतलब होता था मैच
का बेमज़ा होना। टीवी के स्विच ऑफ। अगले दिन अख़बार में पढ़ लेंगे कि टीम इंडिया हार गई।
पूरी टीम का बोझ कंधों उठा कर चलते थे सचिन। शारजाह के रेतीले तूफान में भी सेंचुरी
बनाते हुए देखा है।
सचिन का दूजा नाम है रेकॉर्डों का बेताज बादशाह। लेकिन हमने उन्हें बड़े फाईनल मैचों
में, जब उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती थी,
में अक़्सर खराब प्रदर्शन करते हुए भी देखा है। उनकी ज्यादातर
पारियों का अंत एक बेहूदा गेंद ही होती थी जिस पर वो बोल्ड होते या साधारण कैच थमा
बैठते। बस यहीं पर सचिन तेंदुलकर 'महान' होने से वंचित हो गए।
क्रिकेटर सिर्फ मैदान में रन बनाने से महान नहीं बनता। मैदान के बाहर भी उसकी भूमिका
बहुत महत्वपूर्ण होती है। जावेद मियांदाद बहुत उम्दा बल्लेबाज़ थे लेकिन महान नहीं बन
पाये, क्योंकि उन्होंने कोई आदर्श स्थापित नहीं किये। सचिन ने भी मैदान से बाहर महान
आदर्श स्थापित नहीं किये। सुनील गावसकर की तरह स्टेट्समैन क्रिकेटर नहीं बन पाये। बेहतरीन
फॉर्म में रिटायरमेंट नहीं लिया। उनसे कहा गया कि दूसरों को चांस दीजिये। सचिन ने अपने
कैरियर का आगाज़ पाकिस्तान में किया था। अगर समापन भी विदेशी धरती पर करते तो बात कुछ
और होती। उन्होंने समापन के लिए टीम भी कमजोर वेस्ट इंडीज ही चुनी। जबकि साउथ अफ्रीका
का दौरा तय था। वो कॉरपोरेट के चक्कर में फंस गए। इवेंट बना दिया गया उनका रिटायरमेंट।
उन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया। शायद उनकी उम्र नहीं थी यह। वक़्त भी
नहीं था उनके पास। इंकार कर देते तो 'बड़े' कहलाते। भारत रतन जब उन्हें दिया गया तो हज़म नहीं हुआ। अभी उम्र नहीं थी यह। वो
कोई आल टाइम ग्रेट स्पोर्ट्समैन भी नहीं थे। इस अवार्ड का मान घट गया। अवार्ड मिलने
का बाद भी विज्ञापन करते हुए देखे गए। चाहते तो कुछ साल रुक जाते। कह देते कि मुझसे
बड़े खिलाड़ी हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद हुए हैं। पहले नंबर उनका है। ऐसा कह देते
तो यक़ीनन बहुत बड़े खिलाड़ी हो जाते। अवार्ड छोटा पड़ जाता उनके सामने। त्याग के लिए बड़ा
दिल-गुर्दा चाहिए।
हालांकि रिकार्ड्स टूटने के लिए ही बनते हैं। सचिन के रिकॉर्ड भी टूटेंगे। वो 'भगवान' नहीं है। लेकिन यह
तय है कि इतनी जल्दी और आसानी से नहीं टूटने वाले। सचिन की कमी क्रीज़ पर आज भी अखरती
है।
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