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वीर विनोद छाबड़ा
वो प्रोफ़ेसर साहब बहुत बड़े ज्ञानी-ध्यानी थे। असंभव शब्द उनके पास उपलब्ध शब्दकोष
में नहीं था। कुछ घमंडी भी थे। अक्सर छात्रों से विचित्र व कठिन प्रश्न पूछते।
छात्र उत्तर न दे पाते। इधर-उधर बगलें झांकते।
प्रोफ़ेसर साहब को यह दृश्य बड़ा अत्यन्त मनोहारी लगता। किसी बड़े युद्ध के विजेता
भी लगते। फिर वो जैसे तमाम तरह के रसों का स्वाद लेते हुए इसका उत्तर बताते। साथ में
अपनी किसी वीरगाथा का भी ज़िक्र कर देते। उस वक़्त वो कुल मिला कर आत्मश्लाघा से पीड़ित
व्यक्ति की सजीव मूरत लगते।
उस दिन उन्होंने फिर विचित्र प्रश्न किया - वास्तविक, निष्ठावान और आशावादी
ये तीन गुण किस प्रकार के व्यक्ति में हो सकते हैं? कोई चिन्हित कर सकता
है?
छात्र गहरी चिंता में ढूब गए। कुछ लोग तो उठ कर बाहर चले गए। क्या भरोसा कि यह
प्रोफेसर उसी से उत्तर पूछ कर इंसल्ट न कर दे।
प्रोफ़ेसर साहब मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। उनके चेहरे से स्पष्ट अहंकार टपक रहा था।
एक, दो, तीन और जब पांच मिनट गुज़र गए तो उन्हें यकीन हो गया कि जवाब किसी के पास नहीं है।
अब उन्हें ही जवाब देना पड़ेगा।
प्रोफेसर साहब के लिए अनुकूल ऐसे माहौल में सहसा एक छात्र उठा - सर, मैं पास जवाब है।
प्रोफ़ेसर को आश्चर्य हुआ। वर्षों बाद कोई योद्धा छात्र दिखा है। बहुत प्रसन्न हुए।
लेकिन उन्हें विश्वास था कि इस कठिन प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं होगा। यह लड़का लंतरानी
ही मारेगा। अंततोगत्वा विजय उन्हीं की होनी है। अति आत्मविश्वास से और आत्ममुग्ध होते
हुए बोले - बहुत अच्छे। बताओ।
लेकिन इधर छात्र को भी पूर्ण विश्वास था कि वो जो सोच रहा है, सोलह आने सही है। छात्र
ने बताया - सर, यह तीनों गुण उस आदमी में संभव हैं जो सालों से गंजा है। लेकिन इसके बावजूद वो
कंघा जेब में रख कर घूमता है।
यह सुनते ही प्रोफ़ेसर साहब सन्न हो गए। स्वतः ही उनका एक हाथ अपने गंजे सर पर चला
गया और दूसरा पैंट की पिछली जेब पर। वो जोर से हंसे। साथ में सारे छात्र भी।
लेकिन आज उनकी हंसी में खिसियाहट थी और छात्रगणों के चेहरे पर विजई मुस्कान।
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