-वीर
विनोद छाबड़ा
शाम ढल
चुकी है। चिराग़ जल उठे हैं। टूटी-फूटी सड़कें। हर गली,
हर सड़क पर बेशुमार कारें,
बाइक्स -स्कूटर्स, आटो-टेम्पो की रेल-पेल और चिल्ल-पौं है। फुल बीम पर हेडलाईट्स। आंखें चौंधियां
रही हैं। कुछ दिखता नहीं है। बंदा कई बार लुढ़कता-पुढ़कता है। तभी कोई उसे उठाता है।
अबे देख कर चला कर। बेवड़ा कहीं का? बंदा बड़बड़ाता है। मेरी जगह कोई महिला होती तो यह भले लोग बड़े एहतियात से उसे घर
तक छोड़ आते।
खैर,
बंदा राम-राम करते हुए किसी तरह घर पहुंचा। टूटा-फूटा पति देख
कर पत्नी सर्वप्रथम विलाप करती है। लेकिन एक पीस में पाकर फटकारती है। देख कर चला करो।
तुम्हारा ध्यान हमेशा लड़कियों की तरफ क्यों होता है?
ज़रूरी मरहम-पट्टी होती है। गर्मागर्म चाय की प्याली। जान वापस
आई। बंदा जिस्म और दिल पर लगे ज़ख्मों को सहलाता है। पलकें बंद होने लगती हैं। इसके
साथ ही दस साल पहले का एक फ्लैशबैक ज़िंदा होकर सामने तैरने लगता है.....
बंदा
भूमि मार्ग से एक बड़े शहर से लौट रहा है। ड्राईवर के बगल वाली सीट पर बैठना उसे सदैव
सुखद लगा है। लेकिन आज दिन का समय नहीं है। घुप्प अंधेरा है। मजबूरी भी है। कहीं और
सीट खाली नहीं है। दो लेन की सड़क है। बीच में डिवाइडर नहीं है। सामने से आ रहे वाहनों
की हैडलाईटों से आंखें चौंधिया रही हैं। कुछ भी नहीं दिखता है। बंदा डर के मारे आंख
बंद कर लेता है और रामजी को स्मरण करता है।
लेकिन
बस का ड्राईवर बेअसर है। वो आड़ा-तिरछा होकर बस सुरक्षित निकाल लेता है।
एक ढाबे
पर बस रुकती है। बंदे की मानों सांस वापस आई।
बंदा
ड्राईवर को देखता है। किसी भगवांन से कम नहीं है वो। हैरान-परेशान होकर जिज्ञासा प्रकट
करी। हैडलाइट्स के विरूद्ध हमें तो कुछ नहीं दिखता है। आप कैसे देखते हो भैया? कैसे बस चलाते हो?’’
ड्राइवर
साहब मुस्कुराते हैं। फिर बीड़ी सुलगा के ऊपर देखा। सब रामभरोसे है जी। सुन कर कलेजा
मुंह पर आ गया। यानी सारे यात्रियों की ज़िंदगी राम भरोसे चलती है?
ड्राइवर
साहब हंसते हैं। तजुर्बा भी कोई चीज होती है जी। रोज का आना-जाना है। कहां गड्ढा,
कहां खाई? सड़क कहां चौड़ी, कहां
संकरी? हमें
सब मालूम रहता है रामजी की कृपा से। जिस दिन उनकी कृपा हटी ज़िंदगी खत्म! अब किताब में
जो लिखा है वही तो होना है। बंदा कराह उठाता है। मगर आपके साथ हमारी ज़िंदगी लेकर रामजी
क्या करेंगे? हमारा
क्या कसूर है?
ड्राईवर
साहब जोरदार ठहाका लगाते हैं। बंदे को यमराज जी वो किरदार याद आ गया जो उसने कुछ दिन
पहले सत्यवान-सावित्री फिल्म में देखा था। वो बड़बड़ाता है। मगर अपनी पत्नी तो सावित्री
नहीं है।
तब तक
बस का चलने का समय भी हो जाता है। ड्राईवर साहब फिलॉस्फर बन जाते हैं। ज़िंदगी एक सफ़र
है सुहाना...
फ्लैशबैक
ख़त्म हुआ। बंदा वर्तमान में लौटा। पिछले दस साल से उसे सड़क चलते,
ऑटो में बैठते और स्कूटर चलाते हर समय अट्ठहास करते यमराज भाई
दिखते हैं। वो उसे कंधे पर लाद कर ले जा रहे होते हैं।
यह फ्लैशबैक
अक्सर आते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं। यह फोबिया है। समय की मोटी गर्त तले दब कर धूमिल
हो जायेगा। लेकिन राम जाने वो समय कब आएगा?
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Published in Prabhat Khabar dated 25 April 2016
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
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