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वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना हुआ करता था टेलीफोन विभाग का। जो टेलीफोन का आदि हुआ करता था उनके लिए
इसकी अहमियत बिजली से भी ज्यादा हुआ करती थी।
हमारा टेलीफोन एक बार नहीं बीसियों बार ख़राब हुआ। हर बार कई-कई चक्कर लगाने पड़े।
हमारे पिताजी को टेलीफोन से बहुत प्रेम हुआ करता था। हर समय टेलीफोन से चिपके हुए ही
दिखते। शिद्दत की गर्मी हो और बिजली न हो, उन्हें परवाह नहीं होती थी। लेकिन टेलीफोन के बिना उनका गुज़ारा
नामुमकिन था। जब भी ख़राब होता तो समझ लीजिए
आफ़त आ जाती थी। चूँकि वो कैंसर के मरीज़ थे इसलिए भागदौड़ हमें ही करनी पड़ती थी।
एक बार ख़राब हुआ तो तक़रीबन महीना गुज़र गया। पिताजी बहुत विचलित रहा करते थे। एक
दिन गुस्से में बोल गए - लगता है यह फोन मेरी मौत के बाद ही सही होगा।
दुर्भागयवश दो दिन बाद पिताजी परलोक वासी हो गए। हम लोगों पर तो वज्रपात ही गिर
पड़ा। इधर फोन ख़राब। बड़ी शिद्दत से ज़रूरत थी उस दिन फोन की। कई इष्ट मित्र दौड़े इधर-उधर।
मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अड़ोस-पड़ोस और पीसीओ से काम चलाना पड़ा।
कई दिन गुज़र गए। हम बड़े-बड़े अधिकारीयों से मिले। अर्जियां लगाईं। मगर फ़ोन दुरुस्त
नहीं हुआ।
कहते हैं आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। हमारी व्यथा से व्यथित बिजली विभाग
के एक जुगाड़ू मित्र को एक तरक़ीब सूझी। उन्होंने हमारे एरिया के संबंधित जूनियर इंजीनियर
टेलीफोन के घर के सामने वाले पोल पर बिजली वाली सीढ़ी टिका दी। तू डाल डाल तो मैं पात
पात।
दो घंटे बाद हमारा फोन सही हो गया।
हालांकि हमें अपने मित्र की यह ब्लैकमैलिंग वाली कारगुज़ारी पसंद नहीं आई, लेकिन हमारे पास दूसरा
कोई चारा भी नहीं था। हमें बाद में पता चला कि कई बिजली वाले फोन ख़राब होने पर यही
जुगाड़ करते हैं। सबकी दुम एक दूसरे के मुंह में रहती है।
अब तो खैर टेलीफ़ोन वालों को कोई पूछता ही नहीं। विकल्प मौजूद हैं न।
एक दिन बिजली विभाग वालों का भी यही हश्र होगा। अभी तो इनवर्टर हैं। आम आदमी बिना बिजली तीन-चार घंटे गुज़ारा कर ही लेता है।
लेकिन प्रचलित होने दो सौर ऊर्जा और दूसरी वैकल्पिक व्यवस्थाओं को। ऐसा अभी तो नहीं
मगर कुछ साल बाद ज़रूर होगा। बिजली वाले घर-घर दरवाज़ा खटखटा कर पूछेंगे - साहब बिजली
का कनेक्शन चाहिए?
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