- वीर विनोद छाबड़ा
मुकम्मल मनोरंजक फिल्मों
के इतिहास में बीआर चोपड़ा की 'वक़्त' मील का पत्थर है। पहले
शॉट से लेकर अंतिम शॉट तक दर्शक सीट से चिपका रहा।
लाला केदारनाथ शहर
के जाने माने रईस हैं। यह रईसी उन्हें विरासत में नहीं मिली है। कड़ी मेहनत मशक्त्त
से कमाई है। उन्हें बड़ा गुरूर है इसका।
लाला केदारनाथ के घर
में जश्न चल रहा है। एक ज्ञानी ज्योतिषी किसी मेहमान के साथ आये हैं। उन्होंने लालाजी
का हाथ देखा - वक़्त कब किस्से क्या कराये कोई नहीं जानता। कभी-कभी दौलत गठरी में बंधी
रह जाती है और इंसान भीख मांगता रह जाता है। हाथ में चाय प्याला होटों तक आते-आते बरसों
बीत जाते हैं।
लालाजी ज्योतिष और
भाग्य में यकीन नहीं रखते। मुठ्ठी में बंद भाग्य में नहीं, बाज़ुओं की मेहनत में
यकीन करते हैं। उन्हें गर्व है कि लाला केदारनाथ जो चाहे, जब चाहे, खरीद सकता है। बस एक
तमन्ना है, शहर का सबसे बड़ा व्यापारी बनने और एक चमचमाती कार की ताकि जब
वो उसमें अपने शहजादों के साथ बैठ कर शान से निकले तो लोग दूर से ही देख कर कहें कि
वो देखो, वो जा रहा है लाला केदारनाथ.…
बस यहीं वक़्त ने अपना
खेल दिखाया। एक ज़बरदस्त ज़लज़ला आया। सब तबाह हो गया। लाला केदारनाथ का आलीशानं मकान-दुकान
धूल-धुसरित हो गया। और उनके सुनहरे सपने भी। परिवार भी बिछड़ गया।
लाला केदारनाथ फिर
सड़क पर आ गया। वक़्त ने तब भी उसका पीछा न छोड़ा। एक मर्डर के सिलसिले में लाला केदारनाथ
को जेल हो गई.…
इसके बाद वक़्त ने एक
लंबा ड्रामा खेल। बिछुड़े हुए बच्चे अलग-अलग वातावरण में पल-पोस कर बड़े हुए। रोमांस।
हंसी-मज़ाक। चुहल बाज़ी। धांसू संवाद और गीत संगीत। कार-रेस। मार-धाड़। फिर एक मर्डर।
लंबे कोर्ट ड्रामे के बाद असली कातिल का पकडे जाना और बेक़सूर का छूटना। बिछुड़ों का
ड्रामाई मिलन। और
एक बार फिर वही लाला
केदारनाथ एंड संस और फिर उसी शानो-शौकत की वापसी।
बड़ा बेटा बेटा कहता
है - देखते रहियेगा पिताजी, हम इसे शहर की उस आलीशान बुलंदी…
लालाजी बात काटते हैं
- नहीं बेटा, नहीं। एक बार मैंने भी ऐसा ही चाहा था। मगर वक़्त ने वो तमाचा
मारा कि सब तिनका-तिनका होकर बिखर गया। शायद यह बताने के लिए कि वक़्त ही सब कुछ कराता
है। इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं।
और दि हैप्पी एंड।
बीआर चोपड़ा ने अख़्तर
मिर्ज़ा की इस कहानी पर १९६५ में 'वक़्त' रिलीज़ की थी। इस सुपर-डुपर
हिट इस फ़िल्म ने 'खोया पाया' का नायाब फार्मूला दिया, जिस पर आगे चल कर बीसियों
हिट फ़िल्में बनीं।
लाला केदारनाथ की भूमिका
में बलराज साहनी बेजोड़ थे। एवरग्रीन हिट गाना - ऐ मेरी जोहरा ज़बीं तुझे मालूम नहीं…उन्हीं पर फिल्माया
गया था।
यही वो फ़िल्म थी जिसमें
राजकुमार ने अपनी छाप छोड़ी थी और वो बी-श्रेणी से ए-श्रेणी में प्रमोट हुए। उनके द्वारा
खास अंदाज़ में बोले गए जुमले आज भी याद किये जाते हैं - चिनॉय सेठ जिसके अपने घर शीशे
के होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते हैं...यह बच्चों के खेलने
की चीज़ नहीं, लग जाए तो खून निकल आता है...। वस्तुतः इसके बाद से ही फिल्मों
में जुमलेबाज़ी का असली चलन शुरू हुआ था।
यह मल्टी-स्टार कास्ट
फिल्म थी। बलराज के साथ राजकुमार, सुनीलदत्त, शशिकपूर, साधना, शर्मीला टैगोर,
अचला सचदेव, रहमान, मोतीलाल और मदनपुरी भी थे। यों मल्टी स्टार
फ़िल्में पहले भी बनीं थीं। लेकिन, असली चलन तो 'वक़्त' से ही शुरू हुआ माना
गया।
'वक़्त' भले ही एक फैमिली एंटरटेनर
थी। लेकिन इस मैसेज के रूप में आज बावन साल के बाद भी याद की जाती है कि यह आलीशान
ऊंची-ऊंची इमारतें, यह बिज़नेस महल, ये गरूर, ये घमंड...वक़्त का
मिजाज बदला नहीं कि एक जोरदार ज़लज़ला के साथ सब माटी हो जाना है।
चलते चलते इस फिल्म
से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा। बीआर चोपड़ा ने शुरुआत में तय किया था कि तीन भाईयों
की इस कहानी में तीन भाई होंगे राज कपूर, शम्मी कपूर और शशि
कपूर। सब कुछ फाईनल हो चुका था। शम्मी कपूर को राज़ी करना बाकी था। उन दिनों शम्मी दिल्ली
में शूटिंग में व्यस्त थे। बीआर चोपड़ा जल्दी में थे। शम्मी को कहानी सुनाने दिल्ली
चल दिए। हवाई जहाज के सफर में उनकी मुलाकात सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार बिमल रॉय से हो गयी।
बातों बातों में बीआर ने बिमल रॉय को फ़िल्म की कहानी सुना डाली। बिमल रॉय ने उन्हें
सलाह दी। बाकी तो सब ठीक है, लेकिन इन भाईयों को बदल डालो। ये तीनों रीयल
लाईफ़ में भाई हैं। दर्शक तो पहले से ही मान कर चलेगा कि अरे, ये तो भाई हैं। एक्ससाईटमेंट
मिसिंग होगा। बीआर को बात जंच गयी। वो शम्मी से मिले बिना लौटती फ्लाईट से बंबई वापस
आ गए और राजकुमार, सुनील दत्त और शशिकपूर को साईन कर लिया। बाकी तो हिस्ट्री है।
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Published in Navodaya Times dated 01 March 2017
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एक बार फिर से मेरा धन्यवाद स्वीकार करें छाबड़ा साहब आपने बहुत लाजवाब ढंग से इस दिलचस्प किस्से को बयान किया है।
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