-वीर विनोद छाबड़ा
बात जब चश्मे की उठती
है तो हम पिछली सदी के साठ की शुरूआत में पहुंच जाते हैं। चश्मा तब बहुधा सठियाये लोग
ही लगाते थे। लेकिन हमने तो रिकॉर्ड ही तोड़ दिया। ग्यारह साल की उम्र में ही हमने साठ
वालों की बराबरी कर ली। हमने आईना देखा। एक धीर-गंभीर और बुद्धिजीवी आकृति के दर्शन
हुए। ज़रूर बड़ा होके बड़ा नाम करेगा। लेकिन ज़माना तो कुछ और ही सोच रहा था। हाय,
हाय! इत्ती सी उम्र और चश्मा लग गया। साठ तक पहुंचते तो अंधा हो जाएगा। सलाहें
मिलने लगीं। हरी सब्जियां खिला इसे। और रोज़ाना करेले-लौकी का जूस भी। मां हमें डॉक्टर
बनाने का सपना देखती थी। एक दूर के मामा ने रूलिंग दे दी कि जिस्म में इतनी महीन महीन
नाड़ियां होती हैं। इसे तो दिखाई ही नहीं देगीं। ऑपरेशन गलत कर देगा यह तो। कईयों की
जान चली जायेगी। बाबू बना इसे। बेचारी मां ने दिल के अरमां आसूओं में बहा दिए।
बहरहाल, जैसे ही हमने चश्मा
लगाया, एक नई दुनिया दिखी। एक अरसे से ब्लैक बोर्ड पर धुंधली दिखती
इबारत साफ-साफ दिखने लगी।
बड़े होकर अपने इस अनुभव
पर हमने एक कहानी भी लिखी थी। एक ज़हीन बच्चे को इसलिए कम नंबर मिले क्योंकि उसे ब्लैक
बोर्ड पर साफ़-साफ़ दिखाना बंद हो गया। बच्चे ने डर के कारण मां-बाप को बताया नहीं। लेकिन
शिक्षक ने यह बारीकी पकड़ ली। उसके मां-बाप को से बात की। वे विलाप करने लगे। हाय! बेटा
इतनी छोटी सी उम्र में चश्मुद्दीन कहलायेगा। लेकिन शिक्षक ने उन्हें मना लिया। बच्चे
को चश्मा लगा। और वो फिर से फर्स्ट आने लगा।
लेकिन कहानी का असलियत
से क्या लेना-देना? हमें याद है जब हमने कम उम्र में चश्मा लगाया था तो माता-पिता
को कोई उलझन नहीं हुई। हां समाज और स्कूल में ज़रूर हाहाकार मच गया। अक्सर कमेंट्स सुनने
को मिलते - अरे ओ, चश्मुद्दीन। सबसे ख़राब तब लगा जब एक शिक्षक ने हमें चश्मुद्दीन
कहा। एक दिन शिक्षक ने एक गलती पर हमें कंटाप रसीद दिया। चश्मा टूट गया। लेकिन मैथ
वाले शिक्षक पहले चश्मा उतरवाते थे और फिर पिटाई। दरअसल वो खुद भी चश्माधारी थे।
हम क्रिकेट और कबड्डी
खेलने के बहुत शौक़ीन हुआ करता था। लिहाज़ा, आये दिन चश्मे टूटा
करते थे। खूब पड़ा करती थी। कितनी बार चश्मा बनेगा तेरा। घर में टकसाल तो खुली नहीं
है। नतीजा, एक दिन क्रिकेट-कबड्डी खेलने पर प्रतिबंध लग गया।
समय गुज़रता गया। जैसे-तैसे
हम यूनिवर्सिटी पहुंच गए। तब तक हमारे चश्मे का शीशा बहुत मोटा हो चुका था और फ्रेम
चौड़ा, जिसमें से हमारी सुनहरी आंखें बहुत मोटी-मोटी दिखती थीं। चश्मा
उतार लें तो हमें लड़की और लड़के में फर्क नज़र नहीं आता था, जब तक कि आवाज़ न सुनें।
उन्हीं दिनों एक लड़की से हमारी अच्छी मित्रता हो गयी। एक दिन हमने सुना कि उस लड़की
से उसकी सहेली पूछ रही थी - क्यों री, आज तेरा चश्मुद्दीन
नहीं दिखा। यूनिवर्सिटी छूटी और वो लड़की भी कहीं गुम हो गयी। माईनस तेरह डिग्री के
लैंस वाला तो कुछ साल बाद अंधा हो सकता है।
समय बढ़ता गया। नौकरी
लगी तो मां को बेटे के लिए छोकरी की फ़िक्र हुई। लेकिन हमारे चश्मे के मोटे-मोटे लेंस
देख होने वाला पहला ही ससुर डर गया। यह तो बहुत जल्दी अंधा हो जाएगा। करीब दर्जन बार
हम ठुकराए गए। लेकिन जोड़ियां तो ऊपर से बन कर आती हैं। एक सज्जन के नौ बच्चे थे। छटी
नंबर वाली हमारे पल्ले पड़ी।
हम पचास पार कर गए।
एक दिन हमें महसूस हुआ कि हमें लगा कि दुनिया बस अंधेरी होने ही वाली है। डॉक्टर ने
बताया - अरे बुद्धू, दोनों आंख में मोतिया बिंदु है। फ़ौरन ऑपरेशन कराओ।
ऑपरेशन के बाद तो एक
नयी दुनिया को इंतज़ार करते पाया। सब कुछ बहुत साफ़-सुथरा और चमकता हुआ। और वो भी बिना
चश्मे के। लेकिन चश्मा फिर भी न छूटा। शुक्र है कि सिर्फ रीडिंग के लिए और वो भी बहुत
कम पावर का। और हम ठहरे लिखने-पढ़ने वाले और ऊपर से भुलक्कड़। लिहाज़ा तीन सेट बनवाये।
लेकिन आजकल एक ही सेट
है। एक चोरी गया और दूसरा बंदर उठा ले गये।
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Published in Prabhat Khabar dated 27 March 2017
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