-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन सुबह एक दुखद ख़बर मिली। एक रिश्तेदार स्वर्गवासी हो गए।
हम जब पहुंचे तो मिट्टी उठने की तैयारी चल रही थी। मृत देह को नहलाया-धुलाया जा
रहा था।
हमने देखा एक साहब पतली नोक वाला प्लास लेकर भीतर जा रहे थे। हम कारण समझ गए। यह
भी एक रस्म है। मृतक के हाथ से घड़ी,
गले में पड़ा हार,
अंगूठी, चूड़ी, पायल आदि सब उतार लो। जेब भी खाली कर दो। विधि का विधान है, किसी को कुछ साथ नहीं
ले जाना है। रास्ता सही रहा हो या ग़लत,
जो कुछ कमाया-धमाया और बचाया है, सब यहीं रह जाना है।
हमें कई साल पहले का नज़ारा याद आ गया। पिता जी की मृत्यु पर ऐसा ही हुआ था। घड़ी, अंगूठी और जेब में
पड़े पैसे सब निकाल लिए गए। यह बात अलबत्ता दूसरी थी कि उनकी जेब से निकले पैसे जब हमने
कई दिन बात गिने तो लगभग उतने ही निकले जितने कि क्रिया-कर्म में खर्च हुए थे। संयोग
ही था यह। लेकिन कहने वालों ने कहा कि वो अपने कफ़न का इंतज़ाम करके गए थे, बोझ नहीं बने बेटे
पर। ठीक ही कहते होंगे लोग।
एक और घटना याद आती है। हमारी मां कई महीनों से बीमार थी। सूख कर कांटा हो गयी
थी। लेकिन हैरानी की बात यह हुई कि जब उनकी मृत्यु हुई तो अंगूठी फंस गयी। एक परिजन ने ज़बरदस्ती उतारने की कोशिश
की। नहीं उतरी। एक परिजन तो कैंची ले आये। अंगूठी काट दो। हमें बहुत क्रूर और अमानवीय
लगा।
हमने हाथ पकड़ लिया। जाने दो। हमें विधान और रस्म का हवाला देकर समझाने की कोशिश
की गयी। लेकिन हम भावुक हो गए थे। ज़िंदगी भर मां ने अपनी जान खपा कर हमें पाला-पोसा।
हमारे लिए न जाने कितनी रातें जागी। कितने दिन भूखी सोयी। एक अंगूठी ही तो है। साथ
ले जा सकती है, तो ले जाने दो। हमारा खज़ाना इससे भरने वाला नहीं। ऐसे मौकों पर अक़्सर हम प्लस-माइनस
नहीं सोचते। भावनाओं में बह जाते हैं। यों भी तो कई परिवारों में प्रथा है कि मृतक
के मुंह में सोने या चांदी का छोटा सा टुकड़ा डालने की।
मां का दाह संस्कार कर दिया गया। चौथे दिन सुबह-सुबह फूल (अस्थियां) चुनने पहुंचे।
राख में तब्दील हो चुकी चिता की आकृति बता रही थी यहां पहले भी कोई आया है। चिता को
खंगाला गया है, यकीनन मुंदरी की तलाश में। किसी ने दाहसंस्कार से पहले उनकी उंगली में अंगूठी देख
ली होगी। हमने सुना रखा था कि सोना जलता नहीं, गल कर नीचे बैठ जाता
है। शातिर लोग परिजनों से पूर्व पहुँच जाते हैं। शायद हमारी मां के साथ भी कुछ ऐसा
ही हुआ था। हमने खुद से कहा कि जिसकी किस्मत में था ले गया।
हमें याद है। उस दिन बगल की चिता भी अभी सुलग रही थी। शमशानघाट का एक करिंदा वहां
बैठा चाय बना रहा था। देख कर बहुत अमानवीय लगा।
लेकिन इन
कारिंदों को किसी की भावनाओं से क्या मतलब? कोई आहत होता है तो होने दो। यह सब मानवीयता के समस्त पहलुओं
के प्रति संज्ञा शून्य हैं। और हों भी क्यों न? यह यथार्थ में जीते हैं। इनके लिए शव मृतक का एक शरीर नहीं, एक वस्तु है।---
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