- वीर विनोद छाबड़ा
आज़ादी के बाद जो
फिल्म राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रस्तुतिकरण के कारण चर्चा का विषय
बनी थी वो 'दो बीघा ज़मीन' थी। कहते हैं बिमल
रॉय को यह फिल्म बनाने के प्रेरणा वित्तोरियो की 'बाईसाइकिल थीफ'
से मिली थी। बिमल दा चाहते थे कि फिल्म का शीर्षक कुछ ऐसा हो कि पूरी फिल्म का
ख़ाका एकबारगी जहन में समा जाए। इसके लिए उनकी नज़र गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की
कविता के शीर्षक 'दुई बीघा ज़मीन' पर पड़ी। यह वो दौर
था जब देश का चिंतन समाजवादी था। किसान को ज़मींदार से और शहर को पूंजीपति, बनिया और साहुकार
से मुक्ति दिलानी थी। फिल्म इसी यथार्थ को उजागर करती है।
गांव के किसान
शंभू (बलराज साहनी) का परिवार है- पत्नी (निरुपारॉय), बेटा कन्हैया (रतन) और बीमार पिता गंगू (नाना पलसीकर)। एक क्रूर
ज़मींदार हरनाम (मुराद) भी है। हरनाम मोटी कमाई के लिए गांव में फैक्ट्री लगाना
चाहता है। ज़मीन के लिए उसकी निगाह शंभू की दो बीघा ज़मीन पर है। लेकिन शंभू मना कर
देता है। तब हरनाम ने दांव चला। शंभू को पैंसठ रूपए के एक पुराने कर्ज़ में फंसा
दिया। कर्ज़ चुकाओ या ज़मीन बेचो। दुर्भिक्ष के उस दौर में शंभू ने पत्नी के ज़ेवर
बेचे और ज़रूरी रकम हरनाम के सामने रख दी। लेकिन घाघ ज़मींदार बताता है कि ब्याज
सहित कुल रकम दो सौ चौंसठ रूपए है। कोर्ट से भी शंभू को राहत नहीं मिलती। तीन महीने
में कर्ज चुकाओ या ज़मीन बेचो। शंभू बेटे कन्हैया के साथ पैसा कमाने कलकत्ता
पहुंचता है। लेकिन यहां आकर शंभू को एक के बाद एक कई समस्याओं का सामना करना पड़ा।
लेकिन कुछ भले लोंगों के मदद से कन्हैया बूट-पालिश का काम शुरू करता है और शंभू
हाथ रिक्शा चलाने का। इधर गांव में पारो को शंभू और कन्हैया की कोई सूचना ने होने
से परेशान है। वो शहर जाती है। यहां उसको एक गुंडा बहकाने की कोशिश करता है। वो
किसी तरह उसके चुंगल से छूट कर भागती है और एक कार से टकरा जाती है। शोर मचता है।
पारो को जिस रिक्शे से अस्पताल ले जाया जाता है, वो शंभू का है।
अस्पताल में पारो के ईलाज में शंभू की सारी पूंजी ख़त्म हो जाती है। इधर कन्हैया
चोरी करता पकड़ा जाता है। इस बीच तीन महीने गुज़र चुके हैं। शंभू और पारो गांव जाते
हैं। उनकी ज़मीन पर हरनाम फैक्ट्री का निर्माण शुरू कर चुका है। शंभू एक मुठ्ठी
माटी लेना चाहता है लेकिन सुरक्षा कर्मी उसे ऐसा नहीं करने देता। निराश शंभू और
पारो वहां से चल देते हैं।
रिलीज़ होते ही
फिल्म को ज़बरदस्त आलोचना का सामना करना पड़ा। नव-यथार्थवाद के नाम पर कूड़ा बना
डाला। पूंजीवादी व्यवस्था इसे हज़म नहीं कर पाती है। समाजवाद अभी शैशवावस्था में
है। लेकिन जब फिल्म को कांस और फिर कार्लोव वरी में आयोजित इंटरनेशनल मेलों में
अवार्ड मिलते हैं तो सबकी आंखें खुलती हैं। इधर देश में पहली बार नेशनल अवार्ड
घोषित होते हैं। उसमें 'दो बीघा ज़मीन' बेस्ट फिल्म का
अवार्ड पाती है। इसी समय फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी स्थापित होते हैं। बेस्ट फिल्म 'दो बीघा ज़मीन'
चुनी गयी और बेस्ट डायरेक्टर बिमल रॉय बने। बरसों बाद २००५ में इंडियाटाइम्स
मूवीज़ ने २५ सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्मों के सूची जारी की तो उसमें भी 'दो बीघा ज़मीन'
शामिल की गई।
जनता के हुड़दंग से
बचने के लिए आउटडोर शूटिंग के दौरान कैमरा एक कार में छुपा कर रखना पड़ता था। कई
बार बलराज को असली रिक्शावाला समझ लिया गया। उन्हें सवारी बैठानी पड़ी। एवज़ में
भाड़ा भी मिला। स्टैंड पर रिक्शा लगाने के लिए उनका असली रिक्शेवालों से कई बार
झगड़ा हुआ। एक बार बलराज को सिगरेट की तलब लगी। उन्होंने शॉपकीपर से महंगी सिगरेट
मांगी। लेकिन उन्हें रिक्शेवाला समझ कर भगा दिया।
उन दिनों बिमल दा
एक और फिल्म 'परिणीता' भी बना रहे थे। उसकी नायिका मीनाकुमारी
एक दिन 'दो बीघा ज़मीन' के सेट पर आयीं।
बिमल दा उस समय फिल्म के कुछ स्टिल फोटो देख रहे थे। मीनाजी उन्हें देखकर इतनी
ज्यादा प्रभावित हुई कि इस फिल्म का हिस्सा बनने को उनका दिल मचल उठा। तब बिमल दा
ने उनके लिए जमींदार की सहृदय बहु की एक छोटी सी भूमिका सृजित करवाई। उन पर एक
गाना भी फिल्माया गया - आ जा री निंदिया तू आ...आज भी इस लोरी को गुनगुनाया जाता
है। यूं तो इसकी प्रशंसा में कई कसीदे गढ़े गए। लेकिन सबसे बढ़िया कमेंट राजकपूर का
रहा - काश! मैंने इस फिल्म को बनाया होता।
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Published in Navodaya Times dated 18 March 2017
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