- वीर
विनोद छाबड़ा
हिंदी
फिल्मों का इतिहास स्टंट फिल्मों के ज़िक्र के बिना अधूरा है। वस्तुतः आज़ादी से पहले
तक का युग स्टंट, पौराणिक और कॉस्ट्यूम फिल्मों का ही रहा है। उसके बाद इनका महत्व शनै: शनै: कम
होता गया। लेकिन सन १९६३ में एक सी-ग्रेड फिल्म के गीत-संगीत, हैरतअंगेज जादुई स्टंट दृश्यों ने तहलका मचा
दिया था। इसकी ज़बरदस्त कामयाबी से लगा कि स्टंट
फिल्मों का युग लौट आया है। हालांकि ऐसा हुआ नहीं। बल्कि यह इस युग की अंतिम बड़ी हिट
साबित हुई। इसका नाम था - पारसमणी।
इसकी
कहानी कुछ यों थी। एक राज्य के सेनापति (जुगल किशोर) का जहाज़ तूफ़ान में फंस कर डूब
गया। सेनापति का बेटा पारस किसी तरह बच कर साहिल तक पंहुचा। एक गरीब ने उसे पाला पोसा।
पारस (महिपाल) बड़ा होकर एक होनहार योद्धा और गायक बना। उसका दिल राज्य की राजकुमारी
(गीतांजलि) पर आ गया। एक दिन उसने सम्राट (मनहर देसाई) के सामने गाने का मौका मिला।
सम्राट बहुत खुश हुआ और इनाम मांगने के लिए कहा। पारस ने राजकुमारी का हाथ मांगा। क्रोधित
होकर सम्राट ने पारस को क़ैद कर लिया। लेकिन वो वहां से भाग निकला। और सेना की ऐसी तैसी
करते हुए सम्राट की पुंगी बजा दी। तब सम्राट ने राज़ खोला कि देश श्रापग्रस्त है। जिस
दिन राजकुमारी का विवाह होगा वो देश और सम्राट का अंतिम दिन होगा। यदि पारस दूर मायानगरी
से पारसमणी ला दे तो सब बच जायेंगे और तभी राजकुमारी से उसका विवाह संभव हो पायेगा।
पारस उस मायानगरी तक पहुंचा। मार्ग में उसे अनेक दैत्याकार छिपकलियां, मेंढक, मकड़ियां, उबलते लावा के दरिया, दुर्गम दर्रे, खाईयां, पहाड़ियों का सामना किया। मगर वो सब पर फतह
हासिल करता हुआ अपनी मंज़िल तक पहुंच ही गया। वहां डायनों से भी उसे भिड़ना पड़ा। खैर
उसे पारसमणी मिल गयी और उसे लेकर वो वापस आ गया। राजकुमारी, सम्राट व देश सभी शापमुक्त हुए। राजकुमारी
से उसका विवाह हो गया। पारस को उसका खोया पिता भी मिल गया। और दि हैप्पी एंड।
रहस्य, रोमांच, लोमहर्षक स्टंट, जादुई करिश्मे, धांसू गीत-संगीत, नाच-गाना सब कुछ था इसमें। कमोबेश हर कॉन्स्टयूम
आधारित स्टंट फिल्म की कहानी ऐसी ही होती थी। लेकिन इन सब तत्वों को एक सूत्र में कुशलता
से पिरोने का काम सिर्फ़ डायरेक्टर बाबू भाई मिस्त्री ही कर सकते थे और वो एक अच्छे
ट्रिक फोटोग्राफर भी थे।
स्टंट
फिल्मों को पसंद करने वाली क्लास में कामगार, ढाबों, साईकिल
और ऑटो मरम्मत की दुकानों में काम करने वाले दिहाड़ी गरीब व अपढ़ ही शामिल होते थे। इनके
दिल को यह सब बहुत भाता था। दिमाग पर कतई ज़ोर नहीं देना पड़ता था। इन्हें फूहड़ हास्य
भी पसंद था। 'पारसमणी' ने उनकी इस ज़रूरत को उनकी असीम संतुष्टि की
सीमा तक पूरा किया।
उस युग
के फिल्म समीक्षों का कथन था कि 'पारसमणी' की सफलता
का राज़ सिर्फ इसका हिट गीत-संगीत था। असद भोपाली, फ़ारुख़ क़ैसर और इंदीवर के लिखे सभी गाने हिट
हुए थे। हसंता हुआ नूरानी चेहरा काली ज़ुल्फ़ें रंग सुनहरा…रोशन तुम्हीं से दुनिया रौनक हो तुम जहान की.… उई मां उई मां ये क्या हो गया…मेरे दिल में हलकी सी ख़लिश है.…वो जब याद आये बहुत याद आये.....चोरी चोरी
जो तुमसे आंख मिली तो लोग क्या कहेंगे...इन गानों का ही प्रभाव था कि दर्शकों ने फिल्म
को कई बार रिपीट किया। हंसता हुआ नूरानी चेहरा...पर तो सिक्कों की भी बौछार होती थी।
'पारसमणी' संगीतकार
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की पहली फिल्म थी और यह उनके कैरियर में मील का पत्थर भी साबित
हुई थी। मज़े की बात तो यह थी कि सी-श्रेणी के होने के बावज़ूद इन गानों को लता मंगेशकर, मो. रफ़ी और मुकेश ने स्वर दिए थे। 'पारसमणी' के गानों ने अमीन सयानी के बिनाका गीतमाला
प्रोग्राम में भी खूब धूम मचाई थी। उस युग के इस प्रोग्राम में जगह बनाना बहुत बड़ी
उपलब्धि मानी जाती थी। इनका फिल्मांकन भी उच्च श्रेणी का था। यही कारण था कि बड़ी संख्या
में क्लास फिल्मों के दर्शक भी चोरी-छुपे 'पारसमणी' के प्रति
आकर्षित हुए थे। अब यह बात दूसरी है कि संगीतकार तो स्टार बन गए लेकिन उच्च श्रेणी
के गीत लिखने वालों को वो सफलता नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे।
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Published in Navodaya Times dated 15 March 2017
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