- वीर विनोद छाबड़ा
कई लोगों को हमसे मिलने
की इच्छा होती है। लेकिन हम थोड़ा कतराते हैं। इसलिए कि वास्तविक दुनिया में हमें देख
कर उसका दिल न टूटे। अरे यह तो हाड़-मांस का साधारण आदमी है।
हमें याद है कि टाइम्स
ऑफ़ इंडिया के हिंदी साप्ताहिक 'धर्मयुग' में एक बंदे के लेख
हम बहुत चाव से पढ़ते थे। कभी क्रिकेट पर तो कभी सिनेमा पर।एक एक अक्षर बहुत सारगर्भित
हुआ करता था। एक दिन हमने उन्हें लखनऊ में देखा, उनको छुआ उनसे बातें
की। उसने हमें अहसास कराया कि वो तो साधारण बंदा है, बिलकुल सबकी तरह,
हाड़-मांस का बना हुआ। सोचता भी सबकी तरह है। हम भी उसकी तरह बन सकते हैं। आगे भी
अपनी ज़िंदगी में हमने बहुत सूरमा, एक्टर, एक्ट्रेस, सूबेदार आदि देखे।
सब के सब हाड़-मांस और माटी के पुतले निकले। किसी के सर पर कोई सुरखाब के पर नहीं दिखे।
अब यह बात दूसरी है कि हम उनके जादुई व्यक्तित्व और उच्च कोटि के विचारों से निहाल
हो कर लौटे।
मित्रों देखने में
हम बहुत साधारण व्यक्ति हैं। हमारा तो कद भी बहुत बड़ा नहीं है। सूरत भी ऐसी नहीं है
कि देख कर हंसी आये या डर लगे और आप छोटे छोटे बच्चों से कहें कि जल्दी से सो जा,
नहीं तो छाबड़ा नाम के भूत को बुलाती हूं। हाड़-मांस के एक साधारण से पुतले हैं हम।
अब फोटो की बात तो
दूसरी है। कुछ लोग कहते हैं, बहुत हैंडसम हैं आप। कई बरस पहले एक महिला
ने हमसे कहा था - आप तो बिलकुल सिंपल व्यक्ति हैं। न कोई पर्सनालिटी और न कोई क्वालिटी।
कार भी नहीं। यू ए टोटल डिस-अपॉइंटमेंट।
हमें याद आता है कि
शादी-ब्याह के लिए लोग अपनी बेटी और बेटे की बढ़िया से बढ़िया तस्वीर निकलवाया करते थे।
फोटोग्राफ़र को एक्स्ट्रा धन भी दिया करते हैं। यह चलन आज भी जारी है। आजकल फेस बुक
पर भी यही हो रहा है। श्रेष्ठ अंदाज़ में श्रेष्ठतम तस्वीर।
किसी ज़माने में हमारी
तस्वीरें बहुत अच्छी निकलती थी। तब हमारा सर बालों से ढका होता था। काला चश्मा लगा
लेते थे गज़ब ढाते थे। गोरे गोरे मुखड़े काला काला चश्मा। लेकिन आज हालात बिलकुल उलटे
हैं। सर पर बाल नहीं हैं। जो हैं वो कान के आजू-बाजू ही हैं। तस्वीर देख कर कोई मोहित
हो जाये, इसके लिए हमें बहुत कवायद करनी पड़ती है। कई मित्र कहते भी हैं
कि सिक्सटी-सिक्स प्लस पर यह सब शोभा नहीं देता।
बहरहाल, हम बता रहे थे कि हमें
देख कर कोई हंसता भी नहीं है। अपने घर का लुक भी बस ठीक-ठाक है। हर पुरानी वस्तु से
मोह है। इसीलिए फर्नीचर भी पुराना ही ठोंक-ठाक कर चला रहे हैं। क्राकरी भी पुरानी है।
टूटे तो नई आये। जाने वो दिन कब आएगा। कपड़े-लत्ते भी बहुत पुराने। ज्यादातर तो दस साल
से पुराने। कई तो सिल्वर जुबली मना रहे हैं। कभी-कभी तो शर्म आती है। इसीलिए दर्शनाभिलाषियों
के दर्शन करने अक्सर हम स्वयं चल देते हैं।
कभी कभी कोई अनायास
चला आता है। अब आ ही गए हो तो भैया बैठो। हमें देख कर उसे धक्का न लगे, इसलिए हम अपने व्यवहार
और अपनी बातों से उसे प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इस कवायद में कई बार खेत की
बात करते हुए हम ओबामा तक पहुंच चुके हैं। काफ़ी देर बाद अहसास होता है कि हमने अगले
को बोलने का मौका ही नहीं दिया। हमें अपनी कमियों का इल्म तुरंत हो जाता है। बाद में
पछताते भी हैं कि हमारे बारे में वो भद्र बंदा क्या सोचता होगा?मेमसाब भी कहती हैं
कि कितना बोलते हो? हम कहते हैं आपसे ज्यादा नहीं। और यहां से दूसरी कहानी शुरू हो जाती है। एक और तर्कहीन लंबी
बहस।
हां, एक बात और कि हम दारू-शारू
और सिगरेट भी नहीं पीते और न पिलाते हैं। इस फ्रंट पर बड़े खुश्क किस्म के आदमी हैं
हम। हां, अपने हाथ से उसे चाय बना कर ज़रूर पिलाते हैं। उसी में प्यार
की चाशनी घोलते हैं।
बहरहाल, हमसे मिलने के आतुर
हमारे मित्रों, आईये ज़रूर आईये और अगर चाहें तो बुलाईये भी ज़रूर। परंतु हमें
देख कर 'शॉक्ड' न होना कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
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साथ में पार्ले जी का बिस्किट भी, जो घुल कर कप में नीचे बैठ जाता है। इस बहाने आपको भी चाय और बिस्किट का मजा मिल जाता है। सोने पे सुहागा अगर कुछ दादी माँ ने बनाया तो वह उस व्यक्ति के साथ आपको भी चखने को मिल जाता है।
ReplyDeleteबाबू जी सही कहाँ???
बहुत सही बखान!!
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