-वीर विनोद छाबड़ा
पंजाब के किसी आदमी
को दावत पर बुलायें। एक से बढ़ कर एक बढ़िया परोसें। लेकिन अगर सरसों का साग,
मक्के की रोटी और लस्सी नहीं है तो दावत बेकार है। लेकिन हमारे लिए बिना चाय बढ़िया से बढ़िया पार्टी
या प्रोग्राम निरर्थक है। उस दिन मित्र का ड्रामा देखते हुए सरदर्द शुरू हो गया। थिएटर
की कैंटीन में चाय नहीं थी। हम ड्रामा बीच में ही छोड़ कर चले आये।
एक ज़माना था जब चाय
से पहले सिगरेट और बाद में फिर एक सिगरेट। दिन में चार-पांच बार तो यह सिलसिला चलता
ही था। अब सिगरेट तो छूट गयी, लेकिन चाय को अलविदा नहीं कहा। दिल ने कहा
- जीने के लिए कुछ तो रखो यार।
बचपन में मां सिर्फ
सुबह और शाम आधा कप चाय देती थी। कहती थी गैस बनेगी, रंग काला पड़ जायेगा।
चाय की लत तो हमें हाईस्कूल की परीक्षा से हुई। चाय देर रात तक पढ़ने के लिए जगाये रखती
थी। पॉजिटिव एनर्जी भी मिलती थी। यूनिवर्सिटी पहुंचे तो आदत बन गयी। दिन में छह-सात
चाय तो हो ही जाती थी।
छुट्टी के रोज़ बहुत
बोरियत होती थी। चार दोस्त जमा हुए। चलो गुरमीत के घर एयरपोर्ट कॉलोनी। और कुछ गपशप
भी हो जाएगी। साइकिल उठाई और चल दिए दस किलोमीटर दूर। उनकी माताश्री मसाले वाली चाय
बनाती थीं। वाह मज़ा आ जाता था। हम लोग कहते थे - एक कप और मिलेगी? वो पूरे दिल से पिलाती
भी थीं। कहती थीं - दो बार नहीं दस बार पियो। हम लोग शहर से इत्ती दूर बैठे हैं कि
कोई आता ही नहीं यहां तो। तुम लोग आये हो तो ख़ुशी मिलती है।
यूनिवर्सिटी के दिनों
में डिनर के बाद हम पांच मित्र कंबाइंड स्टडी के लिए एक मित्र के घर जमा होते थे। रात
डेढ़-दो बज जाता था। विसर्जन से पूर्व अब्दुल्लाह टी स्टाल जाकर चाय ज़रूर सुड़कते थे।
यह स्टाल हम जैसे निशाचरों के लिए ही रात भर चलता था। यों हम रेलवे स्टेशन के ठीक सामने
कई साल तक रहे। चौबीस घंटे यहां चाय मिलती थी। नींद नहीं आई तो उठ कर चल दिए चाय सुड़कने।
नौकरी के लिए परीक्षा
देने हम सिर्फ एक चाय पीकर गए थे। परीक्षा शुरू होने में आधा घंटा शेष था। हमने एक
ढाबे में कड़क चाय पी ली। पहली और सेकंड शिफ्ट में दो घंटे का गैप हुआ। उसी ढाबे पर
बैठे-बैठे समोसे के साथ दो चाय पी लीं। दो दिन तक यह सिलसिला चला। पांच महीने के बाद
चिठ्ठी आई कि उत्तीर्ण हो गए। इसका संपूर्ण श्रेय हम कड़क चाय को ही देते हैं।
दफ़्तर में भी हमने
विधिवत चाय पी भी और खूब पिलाई भी। 'ओवर ए कप ऑफ़ टी'
हमने प्रशासन के हित में कई समस्याओं का निदान किया। हम भी खुश और कर्मचारी भी।
लेखन प्रक्रिया के
दौरान भी देर तक जगना चलता है। डिनर के बाद फेसबुक के सामने बैठे। मस्त आईडिया आया।
ढाई-तीन बज जाते हैं। इस दौरान एक चाय तो बनती ही है।
यों हम
यह बता दें कि सुबह-शाम की कस्टमरी चाय मेमसाब बनाती हैं। इसके अलावा जितनी बार चाय
हम चाय पीते हैं तो खुद बना कर। अपने मित्रों के लिए भी चाय हम खुद बनाते हैं। एकदम
कड़क और अदरक कूट कर। मित्रगण भावुक हो जाते हैं। काश! तुम भी चाय वाले होते। ऐसा भी
होता है कि हम चार मित्र किसी ढाबे में चाय पीकर उठते हैं तो हमारी जेब में अक्सर पर्स
नहीं होता है। घर भूल आये होते हैं।---
Published in Prabhat Khabar dated 20 March 2017
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वाह!!
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