- वीर विनोद छाबड़ा
पचास और साठ का दशक,
संगीत की दुनिया का गोल्डन ईरा और इसी दौर की मुबारक़ बेगम। मखमली आवाज़। पिता को
प्रतिभा दिखी। बेटी बड़ी होके बड़ा नाम करेगी। किराना घराने के शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण
दिला दिया। वो आकाशवाणी में गाने लगीं। नाशाद (नौशाद नहीं) ने सुना तो दौड़
पड़े। 'आइये' (१९४९) फिल्म के लिए सोलो गवाया - मोहे आने
लगी अंगड़ाई आज बलमा...इसी फिल्म के लिए लता के साथ भी गाया। लेकिन मायानगरी की माया
निराली। लता को अगली फिल्म मिली 'महल' - आयेगा, आयेगा, आयेगा आने वाला...लता
ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मगर मुबारक़ पीछे छूट गईं। उनका खुद को प्रचारित और प्रसारित
करने का नेटवर्क बहुत कमजोर था। सिर्फ़ गाने से मतलब, पैसे से नहीं। मौला
की मर्ज़ी पर बसर करती रहीं। उनके गाने सी ग्रेड और बी ग्रेड की फिल्मों में मुजरों
पर फिल्माया जाते रहे। 'देवदास' में उनका मुजरा गाना बहुत मशहूर हुआ - वो
ना आएंगे पलट कर हम लाख बुलायें उन्हें...
कुछ और मकबूल गाने
सुनिये - नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालों... हम हाले दिल सुनाएंगे... बे मुररवत
बेवफा बेगन-ए-दिल आप हैं...
दिग्गज केदार शर्मा
छोटे बजट की फिल्म 'हमारी याद आयेगी' बना रहे थे। लता से
गवाना चाहते थे। लेकिन जेब ठनठन गोपाल। तब मुबारक़ ने पूरी की लता की कमी - कभी तन्हाइयो
में हमारी याद आएगी...कई लोगों ने पूछा, यह लता ही हैं?
कमाल अमरोही की 'दायरा' में भजन के लिए लता
उपलब्ध नहीं हो पा रहीं थीं। किसी ने मुबारक बेगम को खड़ा कर दिया। कमाल व्यस्त थे।
सहायक से कहा देख लो। अगर मुनासिब हो तो रिकॉर्ड कर लो। मुबारक ने गाया - देवता तुम
हो मेरा सहारा...कमाल ने सुना तो चौंक गए। लता के नहीं उपलब्ध होने का अफ़सोस जाता रहा।
'हमराही' के एक गाने की रिकॉर्डिंग
लता जी करने वालीं थीं। लेकिन वो फिर बाहर थीं। उनकी फ्लाईट मिस हो गयी। ऐसे में शंकर-जयकिशन
को याद आई मखमली आवाज़ मुबारक़ बेगम की। वक़्त नहीं था। बिना रिहर्सल के रिकॉर्डिंग हुई
- मुझको अपने गले लगा लो...। यह आवाज़ दिल की गहराइयों में उतर गईं। मगर मेहताना मिला
महज़ १५० रूपए। लता जी होतीं तो हज़ार से कम न लेतीं। आश्वासन मिला कि आगे बहुत चांस
मिलेगा। गाना भी सुपर हिट हुआ। लेकिन कोई नामी-गिरामी संगीतकार आगे नहीं आया। खबर तो
यह थी कि जब लता जी लौटेंगी तो उनकी आवाज़ में गाना डब कर लिया जाएगा। लेकिन लता जी
को फुरसत ही नहीं मिली। मजबूरन ज्यों के त्यों गाना रखना पड़ा।
रामानंद सागर की 'आरज़ू' के लिए लता-आशा पर
एक डुएट की रिकॉर्डिंग होनी तय थी। लेकिन लता जी फिर गायब। शंकर-जयकिशन को फिर याद
आई वो मखमली आवाज़ मुबारक़। फ़ौरन रिकॉर्डिंग हुई - जब इश्क कहीं हो जाता है...इस गाने
को भी तुरंत शोहरत मिली। लेकिन परिणाम - फिर वही अंतहीन अंधेरी गली। मुबारक़ का मुकद्दर
न बदला। वो हमेशा दूसरी पसंद बनी रहीं। उन्होंने ११५ फिल्मों में १६८ गाने गाये। इनमें
ज्यादातर 'बी' और 'सी' श्रेणी की थीं। हर साल उनके एक-दो गाने हिट होते रहे,
लेकिन फ़िल्में फ्लॉप होती रहीं। कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में लता-आशा का बिना
नाम लिए मुबारक़ ने शिक़ायत की थी - उन बहनों से सब डरते हैं। ऐसे में कौन पूछे मुझे?
रफ़ी की बहुत अहसानमंद
रहीं मुबारक़ बेगम। रफ़ी साब जब उनके साथ गाते थे तो अपनी आवाज़ नीची कर लेते थे ताकि
बेग़म का स्वर प्रमुख रहे।
मुफ़लिसी बेगम की सारी
ज़िंदगी पर छाई रही। पति के देहांत के बाद ज़िंदगी बेटे-बहु के सहारे गुज़री। एक बैडरूम
का एक छोटा सा फ्लैट। उसी में खाना और उठना-बैठना और सोना। मुबारक़ अक्सर दर्द बयां
किया करती थीं - पैसा कभी बचा ही नहीं। रोजमर्रा की ज़रूरतें ही पूरी हो गईं, यही ख़ैर रही। बेटा
फ्रीलांस ड्राईवर और बहु कहीं छोटा-मोटा काम करती थी। महज तीन हज़ार रूपये महीना फ़ैमिली
पेंशन मिलती रही अपने मरहूम पति के एम्प्लायर से। मुंबई जैसे बड़े शहर में महज़ ऊंठ के
मुंह में ज़ीरा समझो। सब तो दवाइयों में खर्च हो गया।
२०१५ में बेटी चल बसी।
मुबारक़ गहरे अवसाद में डूब गईं। एक बार भाई सलमान खान आये थे। तबसे अंत तक हर महीने
का मेडिकल बिल वही चुकाते रहे। जब तक मुबारक
ज़िंदा रहीं। लता जी भी कुछ मदद कर गयीं। लेकिन यह सब काफ़ी नहीं रहा। सपनों की दुनिया
है। हरेक को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। मुबारक़ के नसीब में मुट्ठी भर शोहरत ही बदी थी।
१९३६ में राजस्थान के सूरतगढ़ में जन्मीं और १८ जुलाई २०१६ को देह छोड़ दी। कलाकार की
ज़िंदगी में अस्सी साल काफ़ी नहीं होते।
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Published in Navodaya Times dated 04 March 2017
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