- वीर विनोद छाबड़ा
डॉ राजेंद्र प्रसाद (०३ दिसंबर १८८४ से २८ फरवरी १९९३ तक) का जन्म बिहार के जिला
सारन के एक छोटे से गांव जिरादेई में हुआ था।
वो भारत के प्रथम राष्ट्रपति (१९५० से १९६२) रहे। १९६२ में उन्हें भारत रत्न से
नवाज़ा गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उच्च श्रेणी में वक़ालत पास की। पहले कलकत्ता और फिर पटना
हाई कोर्ट में वक़ालत करने लगे। ईमानदारी और निष्ठा में उनका कोई सानी नहीं था। सदैव
सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखे। बड़ा नाम था उनका।
एक दिन एक व्यक्ति किसी परिचित के हवाले से राजेंद्र बाबू से मिलने आया। किसी विधवा
महिला से ज़मीन का मामला था। बोला - मुंहमांगी फीस देने का लिए तैयार हूं। बस किसी तरह
आप केस मेरे पक्ष में करा दें। मुझे मालूम है यह काम बड़ी आसानी से आप कर सकते हैं।
राजेंद्र बाबू ने कागज़ात देखे। उनके माथे पर बल पड़ गए। फिर उस व्यक्ति से मुख़ातिब हुए - यह कागज़ात बता तो रहे हैं कि इस ज़मीन
के मालिक तुम हो। यह बात अदालत में साबित भी हो सकती है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। असली
मालकिन विधवा महिला है, तुम नहीं हो। यह कागज़ात नकली हैं। मेरा सिद्धांत और मेरा ज़मीर यह केस लेने का लिए
इजाज़त नहीं देता। और मेरा मश्विरा है कि किसी विधवा की 'हाय' मत लो। पाप लगेगा।
सुख-शांति नहीं मिलेगी।
राजेंद्र बाबू की बातें और सलाह सुन कर वो व्यक्ति इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने
वो सारे नकली कागज़ात उनके सामने ही फाड़ दिए।
राजेंद्र बाबू ने अनेक लोगों अपने विचारों से प्रभावित किया। बिना मुक़दमा के कई
मामले सुलटा दिए। इस तरह समय, ऊर्जा और धन तीनों की बचत। भले उनका अपना आर्थिक नुकसान हुआ।
डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए महात्मा गांधी कहा करते थे - अमृत पीने वाले तो बहुत
हैं मगर विष पीने वाला सिर्फ़ एक है।
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