- वीर विनोद छाबड़ा
सुबह का वक़्त है। एक सीनियर सिटिज़न सुबह घर से बाहर निकलते हैं बल्कि बाहर ठेले
जाते हैं। आगे बढ़ते हैं। उन्हें अपने जैसे आठ-दस और बुढ़ऊ मिलते हैं। कारवां बनता जाता
है।
सब मिल कर पार्क में घुसते हैं। वहां एक कोना है। वहां उनके जैसे कई बुढ़ऊ पहले
से ही मौजूद हैं। एक-दूसरे को देख कर आह्लादित होते हैं। गले मिलते हैं। चुटकुले सुनते-सुनाते
हैं। ज़ोरदार ठहाके भी लगते हैं। बिलकुल असली ठहाके हैं, दिल से निकले हुए।
कुछ गाने भी होते हैं और एक-आध भजन भी। एक-दूसरे से छेड़ा-छाडी भी होती है। पुरानी प्रेमिकाएं
याद आती हैं। अब तो सब दादी-नानी बन चुकी हैं।
अचानक ख्याल आता हैं कि कल के मुक़ाबले आज एक बंदा कम है। चिंता होती है। बंदा निकल
तो नहीं लिया? कल थोड़ा बीमार सा दिख रहा था। मिला तो कॉल।
तभी बंदा दूर से आता हुआ दिखता है। सबको चैन मिलता है। इत्ती गर्मी में शमशान घाट
जाने से बच गए। अरे यार, तूने तो डरा ही दिया था। और यह क्या लाये हो?
जलेबी है। खाओ, गर्मा गरम है। इसी चक्कर में तो देर हो गई। और हां, वहां ऊपर अकेला जाकर
क्या करूंगा? सब साथ-साथ चलेंगे। चिंता मत करो। ऊपर अभी हमारे रहने के लिए ज़मीन तक की ख़रीद नहीं
हुई है। करप्शन वहां भी बहुत है। यहीं से तो सब गए हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई।
सब मिल कर एक बार फिर ज़ोरदार ठहाका लगाते हैं। तभी एक और सीनियर सिटीजन हांफते-कांपते
आते हैं। हाथ-पांव दुःख रहे हैं। अस्थमा भी है। सबने हाथ-पैर दबाये। पीठ सहलाई। दस
मिनट लग गए नार्मल होने में। तब तक जलेबी ख़त्म हो गई।
यार, तुम-लोग अच्छे हो। यही बैठ कर हंसी-ठट्ठा करते हो, खुश हो और तंदुरुस्त
भी। अब कल से मेरी मॉर्निंग वॉक बंद। जिस्म को तकलीफ देने से क्या फायदा? खुश रहना ही सबसे बड़ा
व्यायाम है।
सब मिल कर बाहर निकलते हैं। एक खूबसूरत महिला उनके सामने से बहुत तेज़ क़दमों से
गुज़रती है। वो मॉर्निंग वॉक से लौट रही है। कुछ सीनियर सिटिज़न छड़ी बगल में दबा कर बहुत
तेज़ क़दमों से उसके पीछे-पीछे चल देते हैं। हांफना-कांपना सब सेकेंडरी है। बाकी राह
तकने लगते हैं। उनके घर की तरफ जाने वाली कोई दिखे तो वो भी पीछे-पीछे चलें।
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किसी तरह हल्की फुल्की उम्मिदों को जिन्दा रखे जीवित हैं यह...वही काफी है!!
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