- वीर विनोद छाबड़ा
बंदे ने जब होश संभाला तो खुद को खाकी निक्कर और नीली कमीज़ स्कूल की ड्रेस में
देखा। स्कूल के अलावा भी निक्कर ही पहनी। निक्कर पहन कर मां सोने नहीं देती थी। गंदी
बात। पैजामा पहनो। लेकिन यदा-कदा बड़ों को ख़ाकी निक्कर के साथ सफ़ेद कमीज़ पहने देखा तो
हैरानी हुई। इत्ते बड़े आदमी। बच्चों की तरह खुली खुली निक्कर! महिलायें तो शर्मा ही
जातीं। मां ने पिताजी को सख़्त हिदायत दे रखी थी कि ख़बरदार कोई निक्कर पहन कर घर में
घुसा।
वक़्त गुज़रा। बंदा दसवें में पहुंच गया। टांगों पर बड़े-बड़े उग आये थे। भद्दा लगता
था। पैंट वाले बड़े सहपाठी गंदी निगाहों से देखते थे। टीचरों ने डांटना शुरू कर दिया।
निक्कर छोड़ कर पैंट में आ गया बंदा। बहुत सहज लगा।
जवान हुए। नई कॉलोनी में बस गए। यहां नया कल्चर दिखा। बड़े लोग, बड़ी कोठियां और बड़ी
बातें। सुबह मॉर्निंग वॉक पर लोग निक्कर पहने दिखते। एक हाथ में डेढ़-दो फुटा चमचमाता
लकड़ी का रूल। अंग्रेज़ बहादुर और लाट साहबों की याद ताज़ा होती। दूसरे हाथ में जंजीर
से बंधा कुत्ता। शुरू-शुरू में बंदा समझा कि कुत्ता टहलाने का ड्रेस कोड है शायद।
लेकिन यह सब तो नकली निक्करधारी थे। असली निक्करधारी तो वही ख़ाकी वाले थे। पुराने
समय की खुली और कलफ़दार निक्कर की रवायत को ज़िंदा रखे हुए थे। कॉलोनी का एक पार्क उनका
ठिकाना रहा।
हां, तो बात निक्कर की हो रही थी। २१वीं शताब्दी आते आते निक्कर खास-ओ-आम हो गयी। अमीर
हो या ग़रीब, कर्म का लिहाज़ किये बिना निक्कर पहने दिखने लगा। हर तरफ निक्कर ही निक्कर। कुकुर
टहलाने जाओ तो निक्कर। सब्जी-भाजी लेने जाओ तो निक्कर। मरघटे जाओ तो निक्कर। बदन से
चिपकी-चिपकी डिज़ाइनर निक्करों से बाजार पट गया। पैंट से भी महंगी निक्कर। छह जेब वाली
निक्कर। नव-निक्करधारियों की नई जमात। पुरानी डिज़ाइन की निक्कर को तो ग्रहण ही लग गया।
हद हो गयी जब अमीरजादे निक्कर पहने कार चलाने लगे। बगल में पैमेरियन कुत्ता भी।
सुबह-सुबह दूध-ब्रेड और जलेबी लेने जाते हैं। लेट-नाईट विद फैमिली आइसक्रीम भी खाते
हैं। निक्कर ने इंसल्ट कर दी आइसक्रीम की और छह लखिया कार की भी। डॉक्टर से चेकअप के
लिए भी निक्कर में चल देते हैं।
देखना कल को दूल्हा भी निक्कर में घोड़ी चढ़ेगा और उधर दुल्हन भी शॉर्ट्स में जयमाल
लिए स्वागत करेगी। जब इतना इतना होगा तो दफ़्तर भला कहां छूटेंगे। शुक्र है भद्र पुरुषों
के खेल क्रिकेट में निक्कर की बीमारी नहीं है। मगर कब तक बचेगा यह। कई खिलाड़ी मैन ऑफ़
मैच का अवार्ड निक्कर में लेते हैं। पता नहीं कौन से पौरुषत्व का प्रतीक है यह नंगी
निक्कर? बंदा बिलबिला उठता है। संस्कृति कहां जा रही है।
लेकिन अब अच्छी ख़बर आई है। असली निक्करधारी अब पैंट पहनेंगे। बंदे को किंचित अफ़सोस
भी हुआ। किसी इतिहास को अस्त होते देखना वाकई बहुत तकलीफ़देह होता है और दुर्लभ भी।
लेकिन ख़ुशी ज्यादा है। ब्रिटिश साम्राज्य की याद दिलाती एक ख़राब संस्कृति के एक अंश
का अंत हुआ। बधाई हो! लेकिन अच्छा होता,
अगर निक्कर के बदले धोती या पायजामा होता। चलो जो हुआ, अच्छा हुआ। कम से कम
निक्कर की बिदाई का सिलसिला तो शुरू हुआ। देखना, संस्कृति के ये स्वयं-भू
नव-रखवाले नव-निक्कर को देश से ही निकाल देंगे। नव-निक्करधारियों सावधान।
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Published in Prabhat Khabar dated 21 March 2016
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