- वीर विनोद छाबड़ा
त्यौहार हमारी संस्कृति
की पहचान हैं। हमें आपस में जोड़ती हैं। लेकिन अपवाद छोड़ दें तो यह जानकर बड़ी हैरानी
होती है कि त्यौहारों को केंद्रित करके फ़िल्में नहीं बनी हैं। हां, उन्हें गीत-संगीत में
यदा-कदा स्थान ज़रूर मिला है। और इसमें भी सबसे ज्यादा होली का बोलबाला रहा। इसकी वज़ह
है कि होली ही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें राग, रंग, मस्ती, शरारत, खुलापन, हुड़दंग, हो-हल्ला, धमाल आदि सब एक साथ
दिखता है। खुशियों का इज़हार करने का तरीका भी है। एकता और अखंडता का संदेश भी। वर्ग-जाति
और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठ कर सभी सम्मिलित दिखते हैं। जो बात कहानी न कह पा रही
होती है उसे होली डांस के ज़रिये कहला दिया जाता है। हालांकि होली फ़िल्माना धन और समय
के दृष्टिगत बहुत महंगा रहा है। लेकिन फिर भी बाज़ फिल्मकारों ने हिम्मत जुटाई है। सिचुएशन
क्रेट की है। और इसी बहाने हीरोइन को जम कर नहलाया-धुलाया भी है।
ब्लैक एंड व्हाईट इरा
में होली कम खेली जाती थी। रंगों के इफ़ेक्ट का पता नहीं चलता था। उस इरा की 'गोदान' का अंजान द्वारा रचित
यह गाना बहुत लोकप्रिय था - होली खेलत नंदलाल बिरज में...ऐसी होली खेली कन्हाई जमुना
तट पर धूम मचाई, बाजत ढोलक झांज मंजीरा गावत सब आज मिल के कबीरा...। शकील के
मन में होली की बहुत सुंदर तस्वीर थी....आज मन रंग लो जी आज तन रंग लो, खेलो उमंग भरे रंग
प्यार के ले लो...(कोहिनूर) फिल्मों में जब-जब रंग आया तो शकील भी तन-मन से रंगीन हुए....
होली आई रे कन्हाई होली आई रे, रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी....(मदर इंडिया).
'आन' में शकील होली के बहाने विरह के साथ-साथ प्यार में अमीरी-गरीबी
का भेदभाव मिटाते हैं.... खेलो रंग हमारे संग आज दिन रंग रंगीला आया, कैसे खेलूं ख़ाक मेरा
दिल पिया मिलान को तरसे...आज कोई राजा, ना आज कोई रानी है,
प्यार भरे जीवन की एक ही कहानी है....।
होली हो और पिया संग
चुहलबाज़ी न हो तो होली का मज़ा बेमज़ा है। 'नवरंग' भरत व्यास की बानगी
देखिये - आ रे जा रे हट नटखट...मुझे समझो न तुम भोली भाली रे...। इसी तरह बेदी की 'फागुन' में मजरूह लिखते हैं
- पिया संग खेलो होरी फागुन आयो रे, चुनरिया भिगो ले गोरी
फागुन आयो रे, कहे सजनी सुनो पुकार, बरस बाद तोहे द्वार,
आज तो मारे गेंदे की कली, होली के बहाने मिलो एक बार...। यह गाना दुखांत
साबित हुआ था। वहीदा ने साड़ी पर रंग डालने पर धर्मेंद्र को खूब-खरी खोटी सुनाई थी।
इस पर धर्मेंद्र ने घर छोड़ दिया था। यह फिल्म का टर्निंग पॉइंट था।
यूं तो फिल्मीं होलियां
मस्ती और एकता का संदेश देती हैं, लेकिन 'ज़ख़्मी' में सुनील दत्त बदले
की भावना से ओतप्रोत दिखते हैं - ...होली के रंग में दिल का लहु ये किसने मिला दिया,
आई बहार कलियां खिलीं तो गुलशन जला दिया, दिल में होली जल रही
है...(गौहर कानपुरी)। 'शोले' की होली भला कौन भूल सकता है - होली के दिन
दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं, गिले शिकवे भूल के
दोस्तों दुश्मन भी गले मिल जाते हैं...इसी में आगे हेमा मनुहार करती है...यही तेरी
मर्ज़ी है तो अच्छा तू खुश हो ले पास आ के, न छूना मुझे चाहे दूर
से भिगो ले...धर्मेंद्र भी कम नहीं हैं... हीरे की कनी है तू, मट्टी से बनी है तू,
छूने से जो टूट जायेगी...(आनंद बक्शी)। धायें, धायें, धायें...डाकुओं ने
हमला कर दिया। इतने उम्दा गाने का लुत्फ़ जाता रहा।
याद आ रहा है सत्तर
के दशक में भट्ट बंधुओं के 'होली आई रे' में होली आई होली आई...के खत्म होते ही नायिका
बहक गयी थी। 'कटी पतंग' में विधवा नायिका आशा पारिख को राजेश खन्ना
ने होली खेलने पर मजबूर किया - आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली चाहे,
भीगे तेरी चुनरिया, भीगे रे चोली..। राजेश खन्ना का ज़िक्र होता है तो हो नहीं सकता
कि याद न आये - जै जै शिवशंकर कांटा लगे ने कंकड़....(आपकी कसम)। 'आख़िर क्यों?'
की स्मिता पाटिल को कुढ़न होती है जब पति राकेश रोशन को सहेली टीना मुनीम के साथ
रंग खेलने की आड़ में रासलीला मनाते देखती है - सात रंग में खेल रही है दिल वालों की
टोली...अरे इस मौसम में जो न भीगे, क्या है उसका जीना....(इंदीवर)।
होली और अमिताभ बच्चन
तो एक-दूसरे के पर्याय हैं। अस्सी के दशक के बाद जवां हुई पीढ़ी का सबसे पसंदीदा होलियाना
- रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे...अरे कैनें मारी पिचकारी तोहरी भीगी अंगिया...सोने
के थाली में जूना परोसा, खाए गोरी का यार बलम तरसे...। बेमौसम भी बच्चे से लेकर जवान
तक खुद को रंगों से सरोबर समझते हुए थिरक उठते हैं। 'सिलसिला' का गाना है यह। रीयल
लाईफ को एक समझौते के अंतर्गत रील लाईफ़ लाया गया था। अमिताभ-रेखा की रीयल लव स्टोरी
का फ़ाईनल दफ़न। अमिताभ की होली 'बाग़बान' में भी सुपर हिट रही
- होली खेलें रघुबीरा अवध में...हो साठ बरस में इश्क लड़ाये, मुखड़े पे रंग लगाये
बड़ा रंगीला सांवरिया...।
सदी बदली, मिजाज बदला और फिल्मों
में होली का रंग भी बदला। देखिये नमूना - रंगों में है प्यार की बोली, मेरे पीछे पीछे क्यों
आये, मेरा जिया क्यों धड़काये, जा रे जा डोंट टच माई
चोली (वक़्त)....मिला न कोई ऐसा मेरे सपनों जैसा, छान के मोहल्ला सारा
देखा लिया (एक्शन रीप्ले)...बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी, तो बोले रे ज़माना खराबी
हो गयी, मेरे अंग राजा जो तेरा रंग लागा, तो सीधी साधी छोरी
शराबी हो गयी....जीन पहन के जो तूने मारा ठुमका, तो लट्टू पड़ोसन की
भाभी हो गयी....(ये जवानी है दीवानी)।
सफ़र लंबा है। कुछ यादगार
फ़िल्में और भी हैं जिनके गानों में होली खेली गयी है - दुर्गेश नंदनी, फूल और पत्थर,
गाईड, प्यार की कहानी, सौतन, नमक-हराम, नदिया के पार,
कामचोर, पराया धन, मशाल, आपबीती, आपकी क़सम, राजपूत, बालिका बधु,
डर, होली, धनवान, मोहब्बतें,
मंगल पांडे आदि। जब तक त्यौहार हैं और फ़िल्में हैं, होली आती रहेगी। स्वरूप
बलदता रहेगा। रंग का अपना नशा है और नशे का अपना। दोनों के मिलन का चलन बहुत बढ़ गया
है। नए और पुराने में होड़ चलती रहेगी। लेकिन ओल्ड इज़ गोल्ड। तन रंग लो मन रंग लो...होली
खेलत नंदलाल बिरज में...होली आई रे कन्हाई होली आई रे....रंग बरसे भीगे चुनर वाली...।
जब-जब होली आएगी, इनकी मधुर धुनों पर पैर ज़रूर थिरकेंगे।
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23-03-2016 mob 7505663626
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