Sunday, March 6, 2016

घर हो तो ऐसा।

- वीर विनोद छाबड़ा
एक सज्जन अभी घंटा भर हुए उठ कर गए हैं। हमारे पड़ोसी उन्हें लाये थे। वो अपना घर बेच  रहे हैं। कहते हैं बहुत बढ़िया ऑफर है। हमें भी समझा गए हैं। यहां का बेचो वहां अपार्टमेंट में फ्लैट खरीद लो। उसके बाद भी लाखों बच जाएंगे। मजे की ज़िंदगी। हाउस टैक्स वाटर टैक्स बिजली-पानी सब दूसरे के मत्थे आपको कोई भाग-दौड़ नहीं करनी।
Ghar 1983
हम अपने अतीत में डूब जाते हैं। १९४७ में भारत की आज़ादी के साथ पार्टीशन हुआ। लुटे-पुटे बनारस पहुंचे। किराये का मकान। फिर पचास के दशक की शुरुआत में हम बनारस से लखनऊ आये तो फिर किराये का मकान। जेब में पूंजी ही नहीं थी। बामुश्किल दो वक़्त की रोटी मिल जाती, यही बहुत था। यह बात हमें माता-पिता से पता चली। ऐशबाग़ के एक टूटे-फूटे मकान में रहे। फिर नक्खास के कटरा अबु तराब खान में कुछ साल। वहां से आलमबाग का चंदर नगर। साठ के दशक में हम चारबाग़ की रेलवे मल्टी स्टोरी में रहने लगे। चीन से युद्ध ताज़ा ताज़ा ख़त्म हुआ था।
अस्सी के दशक में हम इंदिरा नगर में आये। हम जहां जहां रहे, वे भले ही किराये के थे, लेकिन इसके बावजूद उन्हें छोड़ते हुए हमें बहुत तकलीफ़ हुई। ज़िंदगी के बेहतरीन साल गुज़ारे थे वहां हमने। बेशुमार दुःख-सुख झेले और देखे। इश्क़ सा हो गया था वहां की दरों-दीवार से। छोड़ते हुए हम ज़ार ज़ार रोये।
लेकिन इंदिरा नगर में हमारा अपना मकान था। बड़े जतन और अरमानों से पाया था। अपनी ज़मीन। पता चला यहां कभी आम-अमरूद के बगीचे हुआ करते थे। इसे और भी अज़ीज़ बनाया हमारे पिताजी ने। पाकिस्तान के मियांवाली से अपने पुरखों के घर की मिट्टी लाकर इसकी नींव में डाली। आवास विकास द्वारा बनाये इस मकान को हमने 'घर' बनाया। पिताजी ने इसे नाम दिया शांति निकेतन। उनकी कभी दिली ख्वाईश रही थी कि वो शांति निकेतन में पढ़ें जिसकी नींव गुरूदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने रखी थी। पहला चरण पिताजी ने बनाया और दूसरा चरण हमने। तीस साल हो चुके हैं।
हमारे पड़ोसी उन सज्जन से सहमत हैं। हमें भी जोर दे गए हैं। इन सेंटीमेंट्स को मारो गोली। ज़माना बदल चुका है।

हमने सोचा बात तो ठीक है। हमारी अगली पीढ़ी सेंटीमेंटल नहीं है। हम सोच ही रहे थे कि उदयपुर से बेटे का फ़ोन आया। पूछने लगा ऊपर वाले मेरे नए कमरे की फिनिशिंग हो गई
हमें झटका लगता है। नहीं अभी वक़्त नहीं है। हमारे पिता ने कितने जतन और अरमानों से इस मकान में अपनी सारी पूंजी लगा इसे घर बनाया। माता-पिता दोनों ने इसमें आखिरी सांस ली। इस मकान के गोशे-गोशे में उनकी याद बसी है। बेटा भी अपने कमरे के बारे में पूछ रहा है। हमारी नम हो गयी।
हमने अपने को खूब कोसा - 'घर' बेचने का वाहियात ख्याल ज़हन में आया ही क्यों?
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