- वीर विनोद छाबड़ा
भारत सरकार ने मनोज कुमार को प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के अवार्ड देने की घोषणा
की है। यह अवार्ड २०१५ के लिए है। मनोज जी को बहुत-बहुत बधाई। फिल्मों में देशभक्ति
का झंडा बुलंद करने में वो माहिर रहे हैं। उनके योगदान को देखते हुए यह अवार्ड देर
से मिला है। लेकिन देर आय, दुरुस्त आये। आजकल माहौल भी देशभक्ति का है। मनोज खुश हैं। उनका कहना है कि निर्देशन
में उनके मेंटर राज खोसला और राज कपूर होते तो बहुत खुश होते।
मनोज ने शहीद (१९६५) में भगत सिंह का किरदार अदा किया। और फिर देश भक्ति में डूबी
उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान और क्रांति बनायीं। देशभक्ति को लोकप्रिय बनाया। इनमें उन्होंने
भारत नाम के किरदार को बखूबी जिया। लेकिन मनोज ने इन फिल्मों में महंगाई, भ्रष्टाचार, जमाखोरी, कालाबाज़ारी, जिस्मखोरी जैसे मुद्दों
को भी खूब लताड़ा। इन्हें देशद्रोह की श्रेणी में रखा। पहचान, यादगार, बेईमान, संन्यासी, दस नंबरी आदि अनेक
फिल्मों में वो इन्हीं एंटी-नेशनल मुद्दों से भिड़ते हुए दिखाई दिए।
उपकार और रोटी कपडा मकान के लिए फिल्मफेयर का श्रेष्ठ निर्देशक का और बेईमान में
श्रेष्ठ नायक का अवार्ड भी मिला। वो भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर रहे। तत्कालीन
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर 'उपकार' में जय जवान जय किसान
को केंद्रीय भूमिका दी।
मनोज का जन्म २४ जुलाई १९३७ को पाकिस्तान के ख़ैबर इलाके के अब्बोटाबाद में हुआ।
पार्टीशन के बाद उनका परिवार दिल्ली में बस गया।
दिलीप कुमार के ज़बरदस्त फैन थे मनोज। १९४९ में रिलीज़ 'शबनम' में दिलीप के किरदार
का नाम मनोज था। इससे मनोज इतना ज्यादा प्रभावित हुए कि अपना नाम हरिकृष्ण से बदल कर
मनोज कुमार रख लिया। बाद में मनोज ने दिलीप कुमार के साथ 'आदमी' में अहम भूमिका निभायी।
डायरेक्टर ए.भीमसिंग की अस्वस्था के कारण इस फिल्म का कुछ हिस्सा मनोज ने डायरेक्ट
भी किया। मनोज ने दिलीप को लेकर १८५७ के ग़दर की पृष्ठभूमि एक बड़ी फिल्म 'क्रांति' बनाई। यह दिलीप की
दूसरी फ़िल्मी पारी का आग़ाज़ भी था।
१९५७ में पहली रिलीज़ 'फैशन' में ज्यादा नोटिस नहीं किया गया मनोज को। बाद में १९६१ में विजय भट्ट की 'हरियाली और रास्ता' ने उन्हें आसमान पर
पहुंचा दिया। वो कौन थी और अनीता में राज खोसला ने उन्हें कन्फ्यूज़ मिस्ट्री ब्यॉय
की पहचान दी।
मनोज कुमार की अन्य अभिनित हिट फ़िल्में हैं - गृहस्थी, हिमायल की गोद में, गुमनाम, बेदाग, पत्थर के सनम, सावन की घटा, नीलकमल, मेरा नाम जोकर, बलिदान, दो बदन आदि।
मनोज 'कलयुग और रामायण' को लेकर विवाद में भी रहे। पहले इस फिल्म का नाम 'कलयुग की रामायण' था। लेकिन सेंसर ने
ऐतराज किया। इसकी विषय वस्तु पर भी तकलीफ थी। जनमानस की आस्था को चोट पहुंचने का डर
था। शुरूआत में मनोज अपनी ज़िद्द पर अड़े रहे। लेकिन आख़िरकार उन्हें झुकना पड़ा। तब तक
वक़्त बहुत जाया हो चुका था। दर्शक की प्राथमिकताएं भी बदल चुकी थीं। फ़िल्म फ्लॉप हो
गयी। आखिरी बनाई फिल्म 'क्लर्क' (१९८९) थी। इसकी नाकामी से मनोज का दिल टूट गया। उन्होंने फिल्मों से तौबा कर ली।
वक़्त गुज़रता गया। लोग मनोज को भूल गए।
लेकिन २००७ में मनोज फिर चर्चा में आये। शाहरुख़ खान ने 'ओम शांति ओम' में उनकी नकल की। यह
बात मनोज को बहुत नागवार गुज़री थी। खासा हंगामा खड़ा हुआ। बात कोर्ट कचेहरी तक पहुंचने
की नौबत भी आई। शाहरुख को माफ़ी मांगनी पड़ी।
मनोज को दुःख रहा कि उनकी विरासत को उनके बेटे कुणाल और विशाल आगे नहीं बढ़ा पाये।
भाई राजीव गोस्वामी को मीनाक्षी शेषाद्री के साथ 'पेंटर बाबू' में लांच किया। लेकिन
वो भी बिग फ्लॉप रहे।
मनोज को
सरकार ने १९९२ में पद्मश्री से नवाज़ा। फिल्मफेयर ने १९९९ में लाईफ़टाईम दिया। फिल्म
इंडस्ट्री में मनोज पंडितजी के नाम से भी जाने जाते हैं। वो एक अच्छे होमियोपैथ भी
हैं। ७९ वर्षीय मनोज पिछले कई महीनों से अस्वस्थ भी चल रहे हैं। लेकिन उम्मीद है कि
फिल्मों में अपूर्व योगदान के लिए मिला प्रतिष्ठित दादा साहब अवार्ड उनमें एक नई ऊर्जा
और उमंग का सैलाब पैदा करेगा और एक बार फिर से फ्लोर पर 'एक्शन...कैमरा ...कट...' कहते हुए दिखेंगे।
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