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वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरा अच्छा पडोसी ही नहीं बहुत अच्छा दोस्त भी है। एक-दूसरे के दुःख-सुख के
साथी। चिंता का आलम यह कि ज़रा सी आहट हुई नहीं कि दौड़ पड़े - क्या हुआ?
एक बार किसी बात पर बहस हो गयी। कुछ ज्यादा ही लंबी खिंच गयी। फिर ठन गयी। वो कहे
मैं सही, मैं कहूं मैं सही। तकलीफ़ों में एक-दूसरे की हुई मदद को अहसान समझ कर गिनाया जाने
लगा। मैंने कहा, ठीक है मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं। उसने कहा, मुझे कोई काले कुत्ते
ने तो काट खाया नहीं।
आज से, नहीं अभी से मुझे तुम्हारा चेहरा देखना तक गवारा नहीं।
और तुम्हारे चेहरे पर कौन हीरे-मोती जड़े हैं।
हो गयी कुट्टी। तकरीबन ढाई-तीन साल तक अन-बन का यह सिलसिला चला। इस बीच हमारे परिवारों
के सदस्य एक दूसरे बद्दस्तूर से बोलते रहे। आना-जाना लगा रहा। हम उनकी पत्नी का आदर
करते थे और हमारी पत्नी का। एक-दूसरे के लिए हमारे ही मुंह फूले रहते थे।
दो साल पहले होली आई। रंगों का त्यौहार। आपसी गिले-शिकवों को दूर करने का त्यौहार।
रंग इसीलिए लगाये जाते हैं। कोई किसी को पहचाने बिना गले मिलें।
पिछली कुछ होलियां फीकी-फीकी सी रही थीं। हर होली की सुबह वही तो आया करता रंग-लगाने।
इधर तीन होली गुज़र चुकी थीं, वो नहीं आया था।
मेरे अहं ने मेरे को धिक्कारा - अबे, तू तो बड़ा है,
बच्चों की तरह रूठा है। शर्म नहीं आती तुझे। चल आगे बढ़। कोई
छोटा नहीं हो जायेगा। बड़ा है, बड़ा ही कहलायेगा।
और मैंने यही किया।
सुबह-सुबह उसके दरवाजे जा पहुंचा। वो अवाक् रह गया। मैंने उसे कुछ कहने का मौका
दिए बिना उसके चेहरे पर गुलाल लगा दिया। फिर मैंने उसे गले लगा लिया - पगले।
वो भी मुझसे लिपट गया, कस कर।
सारे गिले-शिकवे आंसूओं और रंगों की धार में बह गए।
नोट - मित्रों, होली आई है। बहा डालिये इसके रंग में पुराने या नए-ताज़े सारे गिले-शिकवे, अगर कोई हैं तो। रंगों
और मस्ती का यह त्यौहार है ही इसीलिए।
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22-03-2016 mob 7505663626
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