-वीर विनोद छाबड़ा
हाय राम। दस बज गया। आज फिर ऑफिस लेट पहुंची लीला। माथे, चेहरे और गर्दन पर
पड़ी झुर्रियों से बहता पसीना संघर्ष की कहानी बयां कर रहा है।
पहले से विराजमान बड़े साहब फाइलों के अंबार में गुम हैं। आदाब, रिज़वी साहब। कल शाम
भी इसी हालत में थे। घर नहीं गए क्या?
बड़े साहब हंसे। कुछ देर हुई आये। कुछ ज़रूरी फाइलें निपटानी हैं। एक दिन इसी में
ही दफ़न होना है।
बड़े साहब का जुमला है यह। लीला फाइलों की वैली में खो गयी। मेहनत करना संस्कार
में मिला है। तभी सरिता मैम दाखिल होती हैं। पसीने से धुल गया मेकअप दुरुस्त करने लगीं।
घंटा भर तो लगेगा। बड़े घर की नाज़-नखरों से पली बेटी हैं।
साढ़े ग्यारह बजा। शिवबाबू और उनके पीछे सुभाष भैया दाख़िल हुए। इसके साथ ही कोलाहल।
डीए पर बात चल निकली।
मनीष दादा हांफते हुए घुसे। अमां,
अभी पिछला मिला नहीं नहीं मिला है। आगे की बात करता है।
बारह बज रहा है। तभी बाकी लोग भी आ गए। लो रमा दीदी भी आ गयीं तो देखना प्रसादजी
भी पीछे पीछे होंगे। सौरव, हरीश और शिखा साढ़े-बारह के आस-पास आते हैं। परिदीन पंचायती चाय ले आया। वही पुरानी
चर्चा। हरीश को ऑटो के परेशानी। शिखा की स्कूटी का जाम में फंसना। सौरव को लिफ्ट का
नहीं मिलना।
इस बीच जाने कब सरिता किसी से मिलने चल दीं और शिवबाबू दोस्तों संग बाबू मियां
के ढाबे में चाय पीने निकल लिए। सुभाष भैया मोबाइल घरैतिन को डांट रहे हैं।
हरीश फाइल में उलझे हैं। समझ में कुछ नहीं आ रहा है। झुल्ल खा कर उलटी-पुलटी चार
पंक्तियां लिख मारीं। ऊपर बड़े साहब जानें और समझें।
अरे दो बज गया। लंच टाइम। पल भर में सन्नाटा पसर गया। लीला ने वहीं सीट पर लंच
कर लिया। फाईल निपटानी है जल्दी से।
साढ़े तीन तक सब लंच से लौटे। पंद्रह मिनट ही हुए होंगे बैठे कि सौरव ने हरीश के
कान में कुछ फूंका और धीरे से खसक लिया। नई रिलीज़ फिल्म जय गंगाजल देखनी है। सुभाष
भैया और शिवबाबू के बीच बजट पर शुरू बहस जंग में बदल गयी। बड़े साहब को दखल देना पड़ा।
चार बजे शिखा निकल गयी। बाबा, ट्रैफिक में फिर फंस जाउंगी। सरिता के पति का फ़ोन आ गया। वो भी चल दी।
साढ़े-चार बज चुका है। पांच बजने में अब टाइम ही कितना है? एक-एक करके सब खिसक
लिए। एक दिन और गुज़र गया। लेकिन बड़े साहब, लीला और बाहर बेंच पर औंघाता हुआ परिदीन अभी घंटा भर और रुकेंगे।
चिकित्सा प्रतिपूर्ति और मातृत्व लीव की कई फाइलें निपटानी हैं। कल बवाल हो सकता है।
शाम गहरी हो चली है। बड़े साहब ने लीला का आभार व्यक्त किया। बहन आपकी मदद से दफ्तर
चल रहा है। अब आप जायें। ऑटो के लिए कई जगह जूझना होगा। रास्ते में सब्जी-भाजी भी लेनी
होगी। मुझे तो आठ बजेंगे ही। असेंबली चल रही है। कई सवालों के जवाब तैयार करने हैं।
फिर बड़े साहब परिदीन से मुख़ातिब होते हैं। एक चाय ला दे फिर तू भी जा। बाहर सिक्योरिटी
गार्ड से बोल देना कि मैं अभी अंदर हूं। कहीं बाहर ताला न लगा दे।
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प्रभात ख़बर दिनांक १४ मार्च २०१६ में प्रकाशित।
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