Saturday, March 19, 2016

हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना...

- वीर विनोद छाबड़ा
पचास के दशक का अंत। हमने होश संभाला ही था। स्कूल जाने के रास्ते में एक होटल था। सुबह-सुबह का वक़्त होता था। रेडियो पर पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने चल रहे होते थे। गायकों में एक आवाज़़ बिलकुल अलग होती थी। इस आवाज़ में बलां का दर्द होता था। कोई गहरी चोट खाया हुआ बंदा लगता था। हमारे पैरों में ऑटोमैटिक ब्रेक लग जाता था। एक आदमी दीवानावार होकर हाय-हाय करता हुआ कभी अपने बाल नोचता होता था तो कभी कपड़े़ तार-तार करने पर उतारू दिखता होता था। कभी-कभी तो दीवार पर सिर भी पटकता था। होटल का मालिक उसे कंट्रोल करने कोशिश में जुटा रहता।
वो दर्द भरी आवाज़ गाती होती थी - ग़म दिए मुस्तिकिल, कितना नाजु़क है दिल, ये ना जाना, हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना... हम जी के क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया...चाह बरबाद करेगी हमें मालूम ना था... बाबुल मोरा नइहल छूटा जाए.. दुख के दिन अब बीतत नाहीं....। बड़े होकर जाना कि वो कलेजा फाड़ दर्द भरी आवाज़ रेडियो सिलोन से आ रही होती थी और इस आवाज़ के मालिक का नाम कुंदन लाल सहगल था। तब उन्हें परलोकवासी हुए मुद्दत हो चुकी थी। तभी इन गानों का अर्थ पता चला था और शिद्दत से महसूस किया कि इस आवाज़ को सुन कर उस शख्स का कलेजा फट कर बाहर क्यों आ जाता था?

११ अप्रेल, १९०४  को जम्मू के एक निम्म वर्गीय साधारण परिवार में जन्मे सहगल का मन पढ़ाई की बजाए भजन व शब्द-कीर्तन में दिल रमता था। लिहाज़ा बामुश्किल छह जमातें ही पढ़ पाये। धार्मिक मां कैसर बाई उन्हें सूफ़ी पीर सुलेमान यूसुफ़ के पास ले गयीं। उन्होंने बताया कि आवाज़ में दर्द गले से नहीं आत्मा से उठ रहा है। मश्विरा दिया कि परवरदीगार को हाज़ि़र-नाज़ि़र कर खूब गाओ। दिल से दर्द और भी ज्यादा बाहर आएगा।
सहगल ने गायन और संगीत की औपचारिक शिक्षा कभी हासिल नहीं की। जो था वो कुदरत की देन थी। उनकी आत्मा से निकली दर्द भरी आवाज़ एक स्टाईल बन गयी, एक अलग पहचान। यह दर्द उनके चेहरे पर भी नुमायां होता था। देखने वाला तड़प कर रह जाता। 

६ फुट २ इंच ऊंचे इस खूबसूरत पंजाबी बंदे में बलां की कशिश थी। जब मुकद्दर साथ हो तो समझो सब बल्ले ही बल्ले। १९३२ में कलकत्ते की एक पार्टी में सहगल भजन गा रहे थे। एक प्रोड्यूसर की नज़र पड़ गयी। एक के बाद एक तीन फिल्में के हीरो बन गए। साथ में गायक भी। सहगल नाम के सिंगिंग स्टार क्षितिज पर उभर आया। और इसके साथ ही शुरू हुआ सहगल युग, जो १९४६ तक बड़े जोर-शोर से चला। सहगल उस ज़माने के सुपर स्टार थे वो। हर खासो-आम के दिलों में बसते थे। आगे चल कर ऐसी दीवानगी दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और हालिया सलमान खान व शाहरुख खान के लिए देखी गयी।

शुरूआती फिल्मों की नाकामी के बावजूद सहगल को फिल्मों के आॅफ़र आते रहे। १९३३ में पूरन भगत ने पूरे हिंदुस्तान में तहलका मचाया। फिर एक और ज़बरदस्त हिट आयी चंडीदासप्रेम नगर में बसाऊंगी घर मैं...जन-जन की जुबान पर चढ़ा। १९३५  में बरूआ की देवदास ने तो सहगल को दिलों का सम्राट बना डाला। बलम आये बसो मेरे मोरे मन में... दुख के अब दिन बीतत नाहीं...। कलकत्ता में सहगल ने कई और फिल्में भी कीं जिनमें प्रमुख थीं- यहूदी की लड़की (नुक़्ताचीं है गम-ए-दिल, उनको सुनाए ना बने...), प्रेसीडेंट (ईक बंगला बने न्यारा...दुख की नदिया जीवन नैया...), मेरी बहन (दो नैना मतवाले... ऐ कातिल-ए-तकदीर इतना बता दे....) . उन दिनों प्लेबैक पूरी तरह से अपनाया जा चुका था। परंतु स्ट्रीट सिंगर में सहगल की ज़िद पर बाबुल मोरा नईयर छूटल जाए...लाईव गाते हुए शूट हुआ। इस फिल्म में उन दिनों की सिंगिग क्वीन कानन देवी नायिका थीं। उन्होंने सहगल के साथ गाने से इंकार कर दिया। उन्हें डर था कि सहगल की करिश्माई आवाज़ के सामने उनकी जादुई आवाज़ दो टके की रह जाएगी। बरसों बाद बंबई में सुरैया ने भी परवाना में इसलिए डर गयी थी कि सहगल के सामने उनकी कोई कद्र नहीं होगी। परवाना सहगल की आखिरी फिल्म थी, जो उनके इस दुनिया से बिदायी के बाद रिलीज़़ हुई थी।

तीसरे दशक के अंत में हिंदी सिनेमा का सेंटर कलकत्ता की बजाए पूरी तरह बंबई बन गया था। सहगल भी बंबई आ गए। यहां भी सहगल का जलवा कायम रहा। कभी वह भक्त सूरदास होते तो कभी तानसेन। उन्होंने ग़म, खुशी, क्रोध, भय, वात्सलय, प्यार, आश्चर्य आदि सभी रसों के कई बेमिसाल गाने दिए। ख्याल, बंदिश, गीत, ग़जल, भजन, दादारा होरी को उन्होंने भैरवी, बिरंग, बागेश्वरी, काफ़ी, देव गंधार आदि अलग-अलग रागों में पूरे परफेक्शन के साथ गाया। उस ज़माने में शास्त्रीय संगीत का उफान पर शबाब पर था। पूरा महौल ही शास्त्रीय संगीतमय था। हम जी कर क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया... ऐ दिले बेकरार झूम ... चाह बरबाद करेगी, हमें मालूम ना था ... ग़म दिए मुस्तिकिल ये ना जाना... आदि सुपर हिट गाने नौशाद अली साहब ने के संगीत निर्दशन में बने। तब तक सहगल जीते-जी किवदंती बन चुके थे।

सहगल के मुरीद नौशाद का कहना था कि आवाज़ का यह बेताज शहंशाह जब भी गाता था तो सामने हारमोनियम का होना ज़रूरी था। जबकि रेकार्डिंग के वक़्त प्लेबैक सिंगर के सामने माईक के अलावा कुछ भी रखना सख्त मना था। मगर सहगल की भी अपनी मजबूरी थी। लिहाजा एक नकली की-बोर्ड वाला हारमोनियम उनके सामने रख दिया जाता। सहगल को  हिंदी, उर्दू के साथ-साथ पश्तो, पंजाबी और बांगली भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। बंगाली फिल्म दीदी के गाने गुरूदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने लिखे थे। गुरूदेव अपने गीतों के मामले में समझौता नहीं करते थे। इसीलिए रेकार्डिंग से पहले गुरूदेव ने सहगल की आवाज़ का टेस्ट लिया था। मंज़ूरी मिली तभी सहगल को रिकॉर्डिंग की आज्ञा मिली।

सहगल और शराब। एक-दूसरे का पर्याय थे। बिना पीये गा नहीं सकते थे। इसके लिए उन्होंने एक कोड रखा - पैग काली पांच। ये शराब ही सहगल का काल बनी। लीवर सिरोसिस हो गया। फिल्मी कैरीयर भी ज़ख्मी हुआ और ज़िंदगी छोटी हो गयी। नौशाद का दावा था कि सहगल ने अपनी आखिरी दो फिल्मों - शाहजहां और परवाना के गाने बिना शराब पिये रेकार्ड कराए थे।

जब उनकी बीमारी लाईलाज हो गयी तो वो १९४६ में ज़िद करके बंबई से अपने घर जालंधर आ गए। एक नामी फ़कीर से ईलाज कराने लगे। मगर नियति को होनी का टलना मंजूर नहीं था। १८ अप्रैल को १९४७ को सहगल ने महज़ ४२ की उम्र में आखिरी सांस ली। सहगल के एक अनन्य भक्त से सुना था कि जब आख़िरी सफ़र के लिए उनका जनाज़ा उठा था तो दूर कहीं से आवाज़ आ रही थी- अब जी कर क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया...।

सहगल ने कुल ३६ फ़िल्में कीं। कुल मिलाकर १८५  गाने रेकार्ड हुए, जिसमें १४२ फ़िल्मी थे। उनकी याद भारत सरकार ने १९९५ में पांच रुपए का एक डाक टिकट जारी किया। सन १९६७  में स्वरों की मलिका लता ने अपने गायन की सिल्वर जुबली के जश्न की शुरूआत सहगल के इस अमर गीत की - सो जा राज कुमारी, सो जा... उस वक्त पूरा समां सहगलमय होकर सहगल के सुनहरे युग में गुम हो गया था।
सहगल को गुज़रे ६९ साल होने को आये हैं। ये लंबा अरसा किसी को भी भुलाने के लिए काफ़ी है। अपवाद छोड़ उनके युग के लोग भी अब नहीं बचे हैं। मगर सहगल ज़िंदा हैं, अपनी अमर आवाज़ और अपने चाहने वालों की वजह से। संगीत व गायन में ज़रा सी भी रुचि रखने वालों का ज्ञान सहगल को जाने बिना अधूरा है। यह भी एक सच है कि जो सहगल को दिल से सुन लेता है तो उसे सहगल की लत पड़ जाती है।
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Published in Navodaya Times dated 19 March 2016
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