-वीर विनोद छाबड़ा
१९८२ में हमारे एमडी डॉक्टर साहब एक दिन की सर्दी-जुकाम की दवा रुपया २.०० में
और पेट दर्द की दवा २.२५ में दिया करते थे। इसमें उनकी फीस भी शामिल होती थी।
आज वही डॉक्टर क्रमशः १२० और १४० रुपया लेते हैं।
परचा अपने पास ही रखते हैं। कहते हैं, पर्चा दे दिया तो हमारी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। यों भी अगर कोई
चालाकी से परचा ले भी गया तो उसके किसी काम का नहीं। उनकी हैंडराईटिंग कोई केमिस्ट
पढ़ ही नहीं सकता। सिर्फ़ उनका कंपाउंडर ही पढ़ पाता है। कभी भूले-भटके कोई दवा बाजार
से लेने के लिए लिख भी दी तो केमिस्ट को फोन से पूछना पड़ता है कि डॉक्टर साहब दवा का
नाम बता दें।
दवा भी पीस कर मिलती है। दवा को स्टील की छोटी सी उखली में मूसल से पीसी जाती है।
एक दौर वो भी था जब दो कागज़ के बीच गोलियां रख दी जातीं और फिर उसके ऊपर बोतल को बेलन
की तरह चला दिया जाता था।
ज्यादातर मरीज़ दूसरे दिन पलट कर नहीं आते। इसलिए नहीं कि मरीज़ 'भाग' जाता है, बल्कि इसलिए कि मरीज़
की तकलीफ़ ही जाती रहती है।
बेकार हो गए परचे फेंके नहीं जाते। एक महीने बाद दवा की पुड़िया बनने की सद्गति
को प्राप्त होते हैं।
अगर कोई ग़रीब मरीज़ आ गया तो डॉक्टर साहब २५% फीस माफ़ कर देते हैं बाकी ७५% वहां
मौजूद संपन्न मरीज़ कंट्रीब्यूट करते हैं।
जब बाकी डॉक्टर क्लीनिक बंद कर रहे होते हैं तो हमारे डॉक्टर साहब का क्लीनिक खुल
रहा होता है।
जिस मरीज़ को उनकी दवा से आराम नहीं मिलता वो उनके क्लीनिक को अस्तबल और डॉक्टर
साहब को घोड़ों का डॉक्टर बताता है।
एक वृद्धा उस दिन बता रही थी कि जब हम बहु बन कर इस मोहल्ले में आवा रहे तो ये
हमरे डाटर साब भी कलीनिक खोले रहे। तब हमार उम्र १८ बरस की रही। अब हम ७० के हुई गए
हैं। भूले से भी दूसरे डाटर से हाथ नहीं लगवाये। चवन्नी की दवा देत रहे। कभी एक पैसा
भी कम नहीं किये।
यह कहते हुए वृद्धा मुंह बिचका लेती है।
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12-03-2016 mob 7505663626
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