Monday, March 14, 2016

रवींद्र कालिया - बहुत बड़े मनुष्य थे।

रिपोर्ट - वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ १३ मार्च २०१६. राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह।
स्मरण - रवींद्र कालिया। आयोजक : जनवादी लेखक संघ और तद्भव।
प्रथम सत्र - विषय - कुछ यादें, कुछ बातें।
संचालन - नलिन रंजन सिंह।
इस सत्र के अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी ने बताया कि रवींद्र कालिया ने इलाहाबाद की साहित्यिक परंपरा और भाषाई संस्कृति को आगे बढ़ाया। खड़ी बोली को रचनात्मक प्रतिष्ठा दिलाने में इलाहाबाद का बहुत योगदान है। इलाहाबाद ने साठोत्तरी कहानी को भी आगे बढ़ाया। इसमें रवींद्र कालिया का नाम आता है। इलाहाबाद को भी प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने बड़ी बेबाकी से रिश्तों का विश्लेषण किया। भाषा और रचना को गरिमा दी। कहानी को कट्टरपन से बाहर निकाला। अधिकांश लेखक क़लम के सिपाही होते हैं। लेकिन रवींद्र इससे एक कदम आगे बढ़ कर मशीन पर भी काम करते दिखे। वो सही मायनों में पुरषार्थी थे।
 

दिवंगत रवींद्र जी पत्नी और सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया ने उन्हें स्मरण करते हुए बताया वो समर्पित लेखक की तरह गए। अंतिम सांस तक उनकी ज़ुबां पर साहित्य की फ़िक्र रही। उनसे ४६ साल तक का साथ रहा। उन्होंने आखिर तक छैल छबीला चेहरा और व्यक्तिव बनाये रखा। लेखकों को अक्सर फ़ोन करते रहते। बहैसियत संपादक उनकी रचनाओं को सजाने और संवारने में बहुत ऊर्जा खर्च करते रहे। हम दोनों कई इश्यूज़ पर डिफ़र करते थे। वो लेखकीय सवालों के प्रति पूर्णतया समर्पित थे, स्वाभिमानी भी। एक बिगाड़ू बाप भी थे और ख्याल रखने वाले भी। एक बार बंदर आया। उन्हें लगा कि वो बेटे पर हमला कर देगा। अपनी जान की परवाह नहीं की और बेटे पर उलटा हो कर लेट गए। बिजली का बिल, पानी का बिल, टेलीफोन और अख़बार का बिल- बहुत सारे काम वो स्वयं करते थे और इस तरह मेरी बहुत सी ऊर्जा और काम बचा देते थे। बहुत केयरिंग हसबैंड थें। कहते थे, लेखक का काम लिखना है। लेखक को अपनी मार्केटिंग करते देख वो आहत होते थे। अपाहिज का जीवन उन्हें स्वीकार नहीं रहा। पूरे सम्मान के साथ वो जीये।
Kashinath Singh

सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ लेखक काशीनाथ सिंह ने बताया कि रवींद्र कालिया से उनका ४५ साल पुराना संबंध है। वो बहुत बड़े लेखक थे। बड़े संपादक भी। बहुत बड़े मनुष्य भी। आरा में पहली बार भेंट हुई। बहुत से लेखक जमा थे वहां। वो भटके हुए और उखड़े हुए से दिख रहे थे। शाम खाने का दौर चला। वो गिलास लेकर मेरे पास आये। बोले काशी मन नहीं लग रहा। ममता से शादी की है अभी अभी। मन तो नहीं कर रहा था आने का। लेकिन मजबूरी में आना पड़ा। मैं हैरान था। पहली ही भेंट थी। मैंने पहला लेखक देखा था जो पत्नी का ज़िक्र कर रहा था। मैंने पहली लेखक दंपति देखी जिसमें एक-दूसरे के प्रति इतना सम्मान था। एक दूसरे के लिए बहुत कुछ छोड़ा। कालिया जैसा निश्छल और सरल व्यक्ति मैंने नहीं देखा। जो दिल में है वो चेहरे पर। कोई पेंच नहीं। साठ और सत्तर की कहानियां रेखांकित करने योग्य हैं। विस्थापन का समय रहा वो। बनारस और इलाहाबाद जैसे साहित्य के केंद्र टूटे। लोग दिल्ली और बंबई भागने लगे। कांग्रेस से मोह भंग हुआ। कई स्टेट्स में संविद की सरकारें बनीं। कम्युनिस्टों में विभाजन हुआ। १९६७ में भयंकर सूखा पड़ा। अमेरिका हावी हो रहा था। पुराने को रिजेक्ट करके नए को चुना गया। ऐसे ही समय में रवींद्र कालिया का नाम क्षितिज पर आया। मैं अगर इलाहाबाद से जुड़ा तो कालिया के कारण ही। उन्होंने कहा मैं संपादक के रूप में आया हूं। २१वीं पीढ़ी आ गयी है। आप और ज्ञानरंजन नया ज्ञानोदय में इसके बारे में लिखो। लेकिन सिफारिश नहीं कि पक्ष में लिखो या विपक्ष में। संपादक के रूप में उनका योगदान किसी सूरत में कम नहीं है। नए लेखकों के प्रति उनका एटीट्यूट बहुत सिम्पैथेटिक रहा। मैं उनसे कहता था कमियां भी बताओ। वो कहते थे कि यह मुझसे नहीं होगा। जिनका काम है वो करें।

Aniruddh
सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ कवि और लेखक नरेश सक्सेना ने रवींद्र जी को उनकी काव्यमय लेखन के लिए स्मरण किया। उनकी रचना तितली की तरह थिरकती है। उन्होंने 'नौ बरस छोटी पत्नी' २०-२२ साल की उम्र में लिखी थी। तब उन्हें पता नहीं था कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में होगी। बहुत आत्मीय और हंसमुख स्वभाव के थे वो। मेरे घर में सिर्फ एक ही फोटो टंगा है और वो है रवींद्र, ममता और मेरी पत्नी का संयुक्त फोटो। वो मेरी शादी में भी आये थे। मेरी शादी तवायफों के मोहल्ले में हुई थी। मोहल्ले वाली बाइयों बहुत भावुक थीं, रो रहीं थीं कि उनके मोहल्ले में बारात आई है। रवींद्र की आंखों में भी आंसू थे। एक बार उन्होंने नासिरा के बारे में शरारतन कुछ लिख दिया। मैंने इसका विरोध किया। लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना। मित्रता निभाते रहे। उन्होंने 'ग़ालिब छूटी शराब' में तक़रीबन सबकी टांग खींची, सिर्फ़ मुझे छोड़ कर। वो बहुत बड़े मनुष्य थे।

Shekhar Joshi
रवींद्र कालिया के बेटे अनिरुद्ध कालिया ने उन्हें एक स्नेहमयी पिता के रूप में याद करते हुए कहा कि मेरे लिए उनके साहित्य का आंकलन करना बहुत कठिन है। वो कहा करते थे प्रतिभा भगवान देता है, अवसर इंसान देता है। मैंने उन्हें बीमारी के दिनों में बहुत करीब से देखा। उन्होंने अपने को मुझ कभी नहीं थोपा। उन दिनों शहरयार साहब को उनके घर पर जाकर ज्ञानपीठ अवार्ड देना था। उसमें उनको जाना ज़रूर था। तब वो बहुत बीमार थे। डॉक्टर ने बताया कि आपके पास जीने का वक़्त कम है। तब उन्होंने डॉक्टर से पूछा कि आज का दिन तो गुज़र जाएगा। अस्पताल से छूटे तो सीधा ज्ञानपीठ के दफ़्तर चले गए। मुझसे कभी नहीं कहा की मेरी सेवा करो। मम्मी और पापा दो अलग ध्रुव थे। जैसे किसी प्रोग्राम में जाने के लिए फर्स्ट क्लास का किराया ऑफर होता था तो मम्मी कहती थी सेकंड में चल कर कुछ पैसे बचा लेते हैं। लेकिन पापा का कहना होता था कि कुछ पैसे मिला कर हवाई जहाज में चलते हैं।

सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ कवि और लेखक रवींद्र वर्मा ने कहा उनमें ज्ञान रंजन के लिए बहुत मोह था। पिछली बार यहीं २०१४ में लखनऊ में मिले। ज्ञान रंजन से कुछ मतभेद था लेकिन फिर भी ज्ञान को याद किया। वो कहते थे कि प्रेम की व्यापक दुनिया है। लेखक वही अच्छा होता है जो परंपराओं को लेकर चलता है।

रवींद्र जी के बहुत करीबी मित्र रहे प्रवीण चंद्र शर्मा ने रवींद्र कालिया को याद करते हुए बताया कि मैं उन्हें ममता से भी पहले से जानता हूं। मैं उन्हें अक्सर कविता सुनाया करता था और वो वाह-वाह किया करते थे। बीमारी के दिनों में भी वो मुझसे कहते थे कि कविता सुनाओ। उन्हें १९५५-५६ का वो गाना बहुत पसंद था - जाने कहां मेरा जिगर गया जी, अभी अभी यहीं था किधर गया जी....अदम्य इच्छा शक्ति के इंसान थे। बहुत भावुक भी। मेरे लिए बहुत यादें छोड़ गए हैं।

दूसरा सत्र : विषय - सृजन के सहयात्री।
संचालन - प्रीती चौधरी।
इस सत्र के अध्यक्ष एंव सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक विभूति नारायण राय ने अपने संबोधन में रवींद्र कालिया को याद करते हुए कहा कि कालिया अतिशियोक्तियों में जिया करते थे। उनके संस्मरण ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उन्होंने दूसरों की खूब टांग खींची। लेकिन खुद को भी नहीं छोड़ा। अपनी ख़बर भी कालिया ने उसी अंदाज़ में ली। खुद को टुच्चा बताने में उन्हें कोई शर्म नहीं आई। बर्मिंघम में मेरी किताब का विमोचन था लेकिन चर्चा थी कालिया और उनकी किताब 'ग़ालिब छूटी शराब' की। मुझे बहुत जलन हुई। जब वो बहुत बीमार थे तो डॉक्टर ने कालिया से कहा कि आपके पास ढाई-तीन महीने हैं। ऐसे गंभीर वातावरण में भी उन्होंने पूछा कि आज का दिन शामिल है या नहीं। डॉक्टर ने उन्हें देखना बंद कर दिया, इसलिए कि यह नॉन सीरियस पेशेंट है। कालिया बहुत बड़े संपादक थे। जहां जहां संपादक रहे, उसे ज़िंदा कर दिया। एक नई हलचल पैदा कर दी। थोड़े दिन पहले उनसे मुलाक़ात हुई थी। बड़ी बातें कर रहे थे। लगा वो बड़े उरूज़ पर हैं। कुछ कर गुज़रने की चाहत है। बड़े जोश से वापस आएंगे। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि वो थक गए हैं। मैं उन्हें उनके ठहाकों के लिए याद करूंगा।
Rakesh

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव और विख्यात रंगकर्मी राकेश ने रवींद्र कालिया को उनके फक्कड़पन और फ़क़ीरपन के लिए याद किया। ऐसी मस्ती तो कबीर में ही हो सकती थी। जो खुल कर ठहाका लगाये वो यकीनन बहुत निश्छल और सरल होता है। रवींद्र कालिया भी खुलकर ठहाका लगाया करते थे। शायद कबीर भी ऐसे ही ठहाके लगाते रहे होंगे। उनके सानिध्य में हम खुद को छोटा महसूस नहीं करते थे। विरल रचनाकार और सच्चे इंसान के रूप में उन्हें याद करते हैं। आपबीती को वो जगबीती में बदल देते थे। ज्ञान को उन्होंने किताबों से नहीं ज़िंदगी के अनुभवों और विवेक से अर्जित किया। ऐसे लोगों को मैंने भटकते देखा है लेकिन रवींद्र कालिया को नहीं। चुहल करते हुए समाज को बहुत पारखी नज़रों से देखते थे। उन्होंने पक्षधारिता की घोषणा कभी नहीं की।
Vibhuti Narain Rai

सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ रचनाकार शिवमूर्ति ने रवींद्र कालिया को एक बड़े संपादक और रचनाकार के रूप में देखा। उन्हें समझने के लिए 'ग़ालिब छूटी शराब' ही पर्याप्त है। कालिया जी के साथ इलाहबाद में कई मुलाकातें हुईं। हर बार सोच कर गया कि दस-पंद्रह मिनट बैठ कर चला आऊंगा। लेकिन समय का कभी पता नहीं चला। भोजन करके ही उठा। पूछते थे, क्या लिख रहे हो। जो भी लिख रहे हो, जैसा भी लिख रहे हो, फ़ौरन भेजो। रचना को बारीकी से देखते थे।  बेबाक, यारबाज़, और खुलेदिल के इंसान थे। किस किस बात के लिए याद रखा जाये। विराट थे। कोई गांठ नहीं थी। 


कहानीकार प्रांजल ने कहा कि रवींद्र कालिया का व्यक्तिव बहुत बेबाक था। अश्क जी मज़ाक में कहा करते थे कि कालिया बहुत बड़े लेखक हैं, नौकरी तो फ्रिज की किश्तें जमा करने के लिए कर रहा है। उन्होंने कई लेखकों के बारे में संस्मरण लिखे। संपादक के रूप में नया ज्ञानोदय में कई बार मुझे भी प्रकाशित किया। सोचने के कई एंगिल थे उनके। वो अक्सर मेरी नौकरी के बारे में चिंतित रहते थे। कहा करते थे कि ज्ञानपीठ में आ जाओ। एक दिन मैं बहुत परेशान था।  वो चेहरा देखते ही समझ गए। पूछा तो मैंने बताया कि मकान मालिक से किराये को लेकर झंझट हो गया है। १२०० रुपया देना है। मुझे उन्होंने कहा बैठो, और ट्रांसलेशन के काम दे दिया। शाम को २४०० रुपया ज्ञानपीठ से दिलवा दिया।

आलोचक और कवि अनिल त्रिपाठी ने रवींद्र कालिया को स्मरण करते हुए बताया कि उन्हें 'ग़ालिब छूटी शराब' ने बहुत प्रभावित किया। यह संस्मरण मात्र नहीं हैं। उपन्यासिक रचना है, आत्मकथ्य है। इसे पढ़ने के बाद कई बड़े लेखकों के प्रति नज़रिया बदलता है। कालखंड है यह। उनके द्वारा परंपरागत ढांचे को तोड़ने की कोशिश करना रचनात्मक तथा व्यवहार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। जब लेखक के दायित्व का प्रश्न आता है तो रवींद्र कालिया सबसे आगे आते हैं। उन्होंने एक नई पीढ़ी तैयार की। यह बहुत बड़ी बात है। ऐसा बहुत कम हुआ है। 



कार्यक्रम में वीरेंद्र यादव, रूपरेखा वर्मा, नवीन जोशी, केके वत्स, शैलेंद्र सागर, सुभाष राय, ऋषि श्रीवास्तव, कौशल किशोर दयानंद पांडे, अनीता श्रीवास्तव,भगवान स्वरुप कटियार कात्यायनी, केके चतुर्वेदी नसीम साकेती, नज़्म सुभाष, मधु गर्ग, अशोक गर्ग, अमन त्रिपाठी, प्रदीप घोष आदि अनेक लेखक, कवि, सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित थे। 

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