Wednesday, March 2, 2016

समाजवादी बोले तो थोड़ा क्रेक।

- वीर विनोद छाबड़ा
बरसों से चली आ रही दहेज़ प्रथा को तोड़ना कतई मुश्किल नहीं है। विद्रोह कर दीजिये। घर से निकल जाईये। मगर इसके लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। हमारे एक मित्र ने कोशिश की। लेकिन किसी दोस्त ने उसका साथ नहीं दिया। नौकरी भी बहुत मामूली थी। और फिर प्रेमिका ने भी मना कर दिया। दिल टूट गया उसका।

दूसरा विकल्प है घर-परिवार की सहमति से इन्हें तोड़िये। लेकिन यह बहुत ही मुश्किल है। अंबुजा सीमेंट से बनी है यह। फेविकोल से जुड़े हैं इसके जोड़।
हमने दूसरा रास्ता चुना। अच्छा और भरा-पुरा घर परिवार देख कर हमारी शादी तय हुई। परंपराओं का बाजे-गाजे से निर्वाह करने वाले थे वे लोग। मुखिया ने दिन को रात कहा तो रात ही कहेंगे। हिटलर के खानदान से थे। हमें कोई आपत्ति नहीं थी, हिटलर के हों या चंगेज़ी खानदान से।
लेकिन हमारा एजेंडा दूसरा था। उन दिनों हमें समाजवादी सोच के नई-नई हवा लगी थी। कुछ नया और क्रांतिकारी क़दम उठाने की ज़बरदस्त चाह थी। कुछ ऐसा करें कि समाज में न सही कम से कम परिवार में मिसाल तो बनें। इस सोच के मद्देनज़र हमने एक शर्त रखी - हम अपनी होने वाली पत्नी को एक जोड़े में स्वीकर करेंगे।
हमारे ख़ानदान हाहाकार मच गया। ख़ानदान दो टुकड़ों में बंट गया। युवा हमारे पक्ष में और बाकी दूसरे पाले में। लेकिन ख़ुशी की बात यह थी पिता जी हमारे संग थे।
बात उड़ते उड़ते लड़की वालों तक पहुंची। उनके मुखिया बौखलाए हुए हमारे घर पधारे - देखिये, हम इज़्ज़तदार लोग हैं। आपकी समाजसेवा सोच से हमारा कुछ लेना-देना नहीं। हम परंपरा नहीं तोड़ सकते। आप कहते हैं दहेज़ नहीं लेंगे। लेकिन कल हमें भी लड़के की शादी करनी है। भई, हम तो दहेज़ जम कर देते भी और लेते भी है। दहेज़ नहीं लेना, बिना बैंड-बाजा दस बंदों की बरात, यह सब सिरफिरे समाजवादियों और कम्युनिस्टों की बातें हैं। समाज को तोड़ रहे हैं।
नतीजा, वही जो अपेक्षित था। हमें पागल करार देकर रिश्ता तोड़ दिया गया।
हमारी सुधारवादी बातें सुन कर लोग-बाग तंज भी कसते थे - ओय, राजा राम मोहन राय बनने की कोशिश मत कर।
आख़िर में मां रोने-धोने लगी - कोई मेरे लाल को डॉक्टर के पास ले जाओ। कहीं, सच में पागल तो नहीं हो गया।
तब हमने हाथ खड़े कर दिए। जहां इच्छा हो बांध दो। दहेज़ मांगने की प्रथा तो खैर हमारे परिवार में थी ही नहीं। जिसने ख़ुशी से जो दिया रख लिया। अलबत्ता वो बात दूसरी है कि बाद में खूब मीन-मेख निकाली। हमने कहा - फ्री का माल मिला है, नुक्स तो न निकालो।

बहरहाल, हमने एक परंपरा तोड़ी - घोड़ी पर सवार नहीं होंगे। यह पशु पर अत्याचार है।
हमारे खानदान में अभी तक अनेक शादियां हुई हैं। लेकिन हमारे जैसा पागलपन कोई नहीं दिखा पाया। लपक लपक कर लोग घोड़ी चढ़े।

हम ससुराल पहली दफ़ा गए। बड़ी आव-भगत हुई। लेकिन हम सादगी पसंद सिर्फ एक प्याला चाय पीकर चले आये। ससुराल वालों ने समझा जवाई नाराज़ है। लेकिन पत्नी ने उन्हें बताया - समाजवादी टाईप है। थोड़ा क्रेक सा है। नतीजा, अगली बार हमारा स्वागत घटिया किस्म की दालमोठ से हुआ।
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