Thursday, March 17, 2016

वो निक्कर वाले भी खूब थे।

- वीर विनोद छाबड़ा
यह १९५७-५८ की बात है। हमने अभी होश संभाला ही था। आलमबाग के चंदर नगर में रहते थे। पंजाबी विस्थापितों का इलाका था। लेकिन हमें बड़ा आश्चर्य हुआ जब कतिपय बड़े डीलडौल वाले आदमियों को हमने खाकी नेकर पहने देखा। छी छी। यह तो हम बच्चों का पहनावा है।

मां ने बताया था कि यह शाखा वाले हैं। अब हमें क्या मालूम था कि शाखा क्या है। हमने तो बड़े होकर जाना। हमारे अड़ोस-पड़ोस में ही रहते थे सब।
होता क्या था कि शाखा के बाद कुछ लोग हमारे पिताजी से मिलने चले आते थे। वर्का-वर्का करके उर्दू का अख़बार पढ़ा जाता। पिताजी ठहरे उर्दू के लेखक और लाल झंडे की तरफ झुकाव वाले। दीनी लोगों का हमारे यहां खूब आना-जाना था। इल्मो-अदब का मरकज़ समझिए। सियासत, मज़हब और अदब पर खूब बहस होती थी। ज्यादा गर्मी होने पर चुटकुले छोड़े जाते और उस पर जोरदार ठहाके भी लगते थे। चाय के दौर भी चलते। सिगरेट से कमरा धुआं-धुआं हो जाया करता था।
चलते-चलते उर्दू के रिसाले भी उठा ले जाते थे वो लोग। यह रिसाले कराची, लाहोर, मुल्तान, रावलपिंडी और पेशावर से आया करते थे। इनमें मज़ेदार अफ़साने पढ़ने को मिलते थे। इन रिसालों और अफसानों के ज़रिये उन्हें बिछुड़े वतन की मिट्टी की सौंधी-सौंधी गंध का अहसास होता था। आम और नीम के घने पेड़ों को छू कर आती ठंडी-ठंडी हवायें भी बदन को छूती सी लगती थी।
मगर मां को ये सब अच्छा नहीं लगता था। कुढ़ा करती थी - सुबह बच्चों के स्कूल जाने का टाईम होता है। उनको तैयार करूं, नाश्ता बनाऊं या इन निक्कर वालों के लिए चाय बनाऊं।

एक दिन मां का गुस्सा फूट पड़ा - इन निक्कर वालों से कहो कि सुबह-सुबह मत आया करें। 
मां के कहने का असर हुआ उन पर। अब वो शाम को आने लगे। सलीकेदार पतलून और पायजामे में।
लेकिन मां के लिए एक और मुसीबत खड़ी हो गयी। अब वो क्वार्टर या हाफ के साथ आने लगे। मां ने प्रोटेस्ट किया तो छत पर महफ़िलें जमने लगीं।

यह सिलसिला तब ख़त्म हुआ जब हम १९६२ में वहां से शिफ्ट हो कर चारबाग़ चले गए। 
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