-वीर
विनोद छाबड़ा
बंदे
को नॉस्टेलजिया है। विगत में विचरता है। कल गिरते-गिरते बचा। किसी ने कह दिया। बाबा
संभलो। हाथ-पैर फूट जायेंगे।
बाबा
शब्द सुनते ही पचपन साल पीछे का फ्लैशबैक शुरू…
सब कुछ
धुंधला धुंधला सा है। मां-बाप माताजी-पिताजी हैं। अब्बा और अम्मी नाम भी अक्सर कानों
में पड़ते हैं.... दो बूढ़े से लोग दिखते हैं। ये दादा और दादी हैं। हमारे पड़ोस वाला
मुन्ना अपने दादा जी को बाबा कहता है। फूफा भी हैं उसके और मौसा भी....चाचा की दिल्ली
में शादी होती है। पचास का मध्यकाल है यह। उस दौर का नया ज़माना चढ़ रहा है। चाची बीए
पास कड़क मास्टरनी है। उन्हें चाची शब्द से नफरत है। डपट दिया। आंटी कहो। दिल्ली बहुत
मॉडर्न है। यहां हर चाचा आंटी ब्याह कर लाता है। चाची मृत्युपर्यंत आंटी रहीं। चाची
वाला प्यार नहीं मिला...पता चला कि आंटी कल्चर बड़े लोगों की देन है। मिडल क्लास इसे
अपना कर गौरवांवित महसूस करता है। उसका सीना मुर्गे की तरह फूला रहता है।
इससे
अच्छा हमारा शहर है। नई पड़ोसन अभी अभी ब्याह के आई है। उसे चाची कहा। उसने खुश होकर
दुअन्नी दी। दिल खुश हो गया....नीचे वाले फ्लैट में श्रीवास्तव फैमिली के बच्चे मां
को जिया कहते हैं। हम भी उन्हें जिया कहते हैं। लेकिन जिया तो बड़ी बहन को कहते हैं।
होगा कुछ भी। हमें तो चाची और बड़ी बहन दोनों का प्यार मिला...बंदे को ताउम्र फख्र रहा
कि बुआ को बुआ ही कहा और मौसी को आंटी नहीं बोला।
एक दिन
स्कूल में पिताजी आये। बंदे ने मास्टर जी से परिचय कराया। ये मेरे 'फादर' हैं।
मास्टर जी ने घुमा कर दो छड़ी लगाई। पिताजी कहने में शर्म आती है?
पता ही
नहीं चला कि कब दौर बदल गया। आदरणीय जीजा जीजू और चाचा चाचू हो गए और मामा भी मामू।
दादा को दादू से और नाना को नानू से प्यार हो गया। मौसियां और बुआ भी आंटियां कहलवाने
में गौरव महसूस करने लगीं। ताऊ और ताई को छोड़ कर सारे रिश्ते गडमड हो गए। पिताजी डैडी
बने और फिर पापा। उस दिन एक बच्चे ने पापू कहा तो गलगलान हो गए। अंग्रेजी कल्चर में
रंगे बच्चे तो पॉप कहते हैं। मां भला पीछे कैसे रहे?
मम्मी बनी और फिर मॉम। दादी और नानी ने भी चुपचाप नाम बदल लिया।
एक ग्रेमी है तो दूसरी ग्रैनी है।
नेपथ्य
से आवाज़ आती है। संस्कृति का क्षरण है यह। लेकिन कोई हल्ला-गुल्ला और विरोध भी तो नही
है। दोनों पक्षों को मज़ा आ रहा है।
जाने
भी दो यारों। क्या रखा है नाम में? फिर हर पीढ़ी का एक अपना वर्तमान है। इन्हें भी अपनी ज़िंदगी जीने का हक़ है। इनके
पास तर्क भी हैं। चाचू-नानू कहने से रिश्तों में चाशनी घुल गयी है।
बदले
रिश्तों का बाज़ार पर भी असर है। सब्ज़ी वाले के लिए ग्राहक कबकी आंटीजी और अंकलजी हो
चुके हैं। ऑटोवाले के लिए भी सवारी अंकल-आंटी है। भिखारियों तक ने रिश्ते बदल दिए हैं।
दादी की उम्र को आंटी कह दो तो खट से दस का नोट हाज़िर।
बंदे
का मॉडर्न पड़ोसी कहता है - यार जब कोई बाबाजी कहता है तो तबियत करती है कि लगाऊं घुमा
कर एक ज़न्नाटेदार चांटा।
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Published in Prabhat Khabar dated 28 March 2016
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