-वीर
विनोद छाबड़ा
दामाद
लोग हमेशा से ही चर्चा में रहे हैं। रिश्तों में टॉप रैंकिंग उन्हीं की रही है।
शायद वेद-पुराणों में भी उन्हें यही स्टेटस हासिल था। हमने तो जब होश संभाला तो
उन्हें मोहल्ले की सांझी विरासत के रूप में देखा। एक के घर का दामाद,
समझो पूरे मोहल्ले का दामाद। उसे देखने और मिलने को पूरा
मोहल्ला उमड़ पड़ता था। और फिर खातिर-त्वजो की होड़ शुरू होती थी। लंच शर्मा जी के
यहां तो शाम की चाय सिन्हा जी के घर। रात का खाना कुरील जी के घर। अगले दिन सुबह
का नाश्ता मलिक साहब घर में पकौड़ों के साथ होता था। दूसरे और तीसरे दिन भी यही लगा
रहता था। दामाद बेचारा ससुराल का माल दिल खोल कर भकोस भी नहीं पाता था कि रुखसती
का वक़्त आ पहुंचता था।
एक
दामाद जी बहुत नाज़ों नखरों वाले थे। जब वो अपनी ससुराल पधारते थे तो परंपरा और
प्रोटोकॉल के हिसाब से पांच या सात सदस्यों का हाई पावर डेलिगेशन उन्हें स्टेशन
रिसीव करने के लिए जाता। संयोग से यूथ ब्रिगेड के प्रतिनिधि के तौर पर हम भी उसमें
शामिल रहते थे। उन्हें भांति-भांति की फूल मालाओं से लाद दिया जाता था। घर के बाहर
एक अदद तोरण द्वार भी खड़ा कर दिया जाता। ताकि स्वागत में कोई कमी न रह जाए। याद
बनी रहे इसलिए एक फ़ोटोग्राफ़र भी स्वागत स बिदाई तक तैनात रहता था।
दामाद
जी खाने-पीने के भी ज़बरदस्त शौक़ीन थे और थोड़ा गर्म मिज़ाज़ भी। न कमी बर्दाश्त करते
और न अति। गाली-गलौज़ तक उतर आते। लेकिन उन्हें बर्दाश्त करना भी मजबूरी थी। प्रधान
जी के दामाद जो ठहरे। उनकी पत्नी को हम लोगों की बुआ लगती थीं। बुआ जी उनके
खाने-पीने का बहुत ध्यान रखती थीं। एक मज़बूत टीम उनके सिपुर्द रहती थी जिन्हें बुआ
जी हर पल निर्देश देती दिखती थीं कि ये लाओ और वो लाओ। सादी चद्दर नहीं,
फूलदार बिछाओ। तकिये का गिलाफ़ सुबह-शाम बदले जाते थे। भिंडी
नहीं आलू-गोभी बनाओ। सुबह मट्टन और रात चिकेन। दही से जुकाम हो जाता है। लौकी का
तो नाम भी न लो। जीजा जी तुम लोगों को मरीज़ दिखते हैं क्या?
दामाद
जी पीने के भी शौक़ीन थे। संयोग से उनकी ससुराल में कंपनी वाला कोई नहीं था। लिहाज़ा,
मोहल्ले के अनुभवी पियक्कड़ याद किये जाते थे। वो जब तक वहां
रहते,
हर दूसरे दिन बालकनी में बैठा कर उनको फिल्म भी दिखाई जाती।
इंटरवल में कोकाकोला के साथ चिप्स भी।
कुल
मिला कर दामाद जी के वहां रहने के दौरान जो भी घटता था,
हम लोगों के लिए कौतुहल का विषय बना रहता। जब उनकी रुखसती
हो जाती तो वही हाई पावर डेलीगेशन बिदा करने भी जाता। ट्रेन चलते ही सब चैन की
सांस लेते - शुक्र है, बलां गयी।
कुछ
साल बाद हमारी भी शादी हुई। बड़े अरमान थे कि हम भी दामाद बनेंगे। खूब खातिर-त्वजो
होगी और थोड़े बहुत नखरे भी दिखाएंगे। मगर दामाद होने का सुख हमें एक दिन भी नसीब
नहीं हुआ। दरअसल, पास
में ही ससुराल था। सात आठ मिनट का वाकिंग डिस्टेंस। जब चाहो,
मुंह उठा कर चले जाओ। मेमसाब तो हमारे ऑफिस जाते ही उधर ही
खिसक जाती थीं। शाम को हमें उनको लिवाने जाना पड़ता।
नज़दीक
ससुराल होने का यही नुकसान होता है। लोग सोचते हैं ये वही लौंडा है जो पहले अक्सर
इधर-उधर लफंटगिरी करता फिरता था। सासुजी भी कहती थीं - ए मुंडा मेरा जवाई नईं,
पुत्तर है जी। और इसके साथ ही हमारे सामने सस्ती दालमोठ और
लोकल ब्रांड बिस्कुट रख दिए जाते। सालियां छुपा दी जातीं थीं। सास जी कहती थीं,
बड़ी शर्माती हैं जी। साले लोग भी 'हेलो' करते
और ज़रूरी काम का बहाना बना कर उड़न छू हो जाते। मेमसाब को इसमें कुछ भी ख़राब नही
लगता था - क्या करें बेचारे? बहुत बिजी जो रहते हैं।
बाद में हम दूसरे शहर
शिफ्ट हो गए। लेकिन हालत वही रहे। फर्स्ट
इम्प्रैशन इज़ लास्ट इम्प्रैशन। हम कहने को दामाद रहे, 'दामाद जी' कभी नहीं बन
पाए।---
Published in Prabhat Khabar dated 17 Oct 2016
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Lucknow - 226016
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