Tuesday, October 18, 2016

दो दिन की जुदाई, ओ रब्बा लंबी जुदाई!

- वीर विनोद छाबड़ा
एयरटेल ने मुझे दो दिन तक फेस बुक की दुनिया से दूर रखा। दो साल के अरसे में ऐसा पहली बार हुआ। बहुत गुस्सा आया। न जाने कितने विचार आये और दफ़न हो गए। 

पहली बार फेस बुक से जुदाई का मतलब भी पता चला। यों भी जुदाई चाहे एक घंटे की हो या दो दिन की। लगती बहुत ही लंबी है। खासतौर पर जब कहा जाए, बस थोड़ी देर और। रेशमा का गाया ओ लंबी जुदाईयाद आ गया। 
उस पर तुर्रा यह कि बंदरों ने केबल को झूला बना डाला। नतीजा तार टूट कर नीचे गिर पड़ा। बंदर को तो मज़ा आया। खीं खीं कर हंसने लगा। लेकिन हम झेल गए। सीने पर सांप लोट गया। टीवी देखने तक से महरूम हो गए। डेन का नेटवर्क है। मेंटेनेंस स्टॉफ की शॉर्टेज है। प्राईवेट वाले तो वैसे भी दस की ज़रूरत के बदले दो ही से काम चलाते हैं। सुबह आठ से रात आठ तक। रात को गड़बड़ हो तो राम भरोसे काटिये। कुछ भी नहीं देख पाये। न एनडीटीवी, न डिस्कवरी और न कार्टून नेटवर्क।
पहले हमारा डीटीएच कनेक्शन था। उसमें भी बंदर खुराफ़ात करने से बाज़ नहीं आते थे, छतरी हिला जाते। एलाइनमेंट गड़बड़ा जाता था। ठीक कराने के बंदा बुलाना पड़ता था। वो भी नखरों से दो दिन बाद आता था। फिर हर बार दक्षिणा दो सौ रूपए की चोट। मेरे आस-पास दर्जनों डीटीएच हैं। लेकिन बंदरों को न जाने क्यों हमें ही निशाना बनाने में मज़ा आता था। कई टोटके किये। मगर बंदर इंसानों को देख देख कर बहुत सयाने हो गए हैं। तंग आकर कटवा दिया। लेकिन बंदरों ने साथ नहीं छोड़ा।

हां तो हम कह रहे थे कि पिछले दो दिनों में हमने बहुत कुछ खोया हमने। अपने विद्वान मित्रों की ताज़ा पोस्ट और उन पर बिलबिला कर आये तीखे और व्यंग्यात्मक कमेंट्स भी नहीं देख पाया। मैं हमेशा इन सबसे से लाभांवित होता रहा हूं।
अच्छी और चुभने वाली पोस्ट्स पर कमेंट देने का भी हमें शौक है। हम भूल नहीं सकते कि फेस बुक पर हमारी शुरुआत लाईक और कमेंट्स देने से हुई थी। कई बार ऐसा हुआ कि कमेंट देते-देते वो हमारी पोस्ट बन गयी। और हमारे मुंह से बेसाख़्ता निकला - व्हाट एन आईडिया सर जी।
आज सुबह एक मित्र का फ़ोन आया। ज़िंदा हो या फेस बुक पर शोक की सूचना दे दूं?
जल-भुन कर राख़ हो गए हम। साले, श्रद्धांजलि वाला हरी फूल-पत्ती वाला गोल बुके लेते आओ।

कल पैदा हुए मित्रों को जन्मदिन की बधाई तक न दे सका।
हम तो उनमें हैं कि डिहाइड्रेशन हुआ। सुबह अस्पताल में भर्ती हुए। रात दस बजे लौटे डिस्चार्ज हो कर। मूंग की दाल खाई और बैठ गए फेस बुक पर लिखने। पहली बार भर्ती हुए, पहली बार ड्रिप लगी - लाईफ़ टाईम अचीवमेंट! अब इसे नशेड़ी कहिये या अफ़ीमची।
हम पर एक्सीडेंट का साया रहता है। आये दिन कुछ न कुछ टूट-फूट लगी रहती है। मगर फिर भी फेस बुक से दूर नहीं रह पाते।   
यों निशाचर भी हैं। परसों रात हमने इसमत चुग़ताई की लिहाफ़, दोज़ख़ी, चौथी जोड़ा, जड़ें सहित कई कहानियां दोबारा पढ़ डालीं। कल रात राही मासूम रज़ा  'ओस की बूंद' नॉवेल का बचा हुआ आधा हिस्सा पढ़ डाला।

गोया, बोरियत का भी आनंद उठा लिया।
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