-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक सीनियर सहकर्मी हुआ करते थे। घनघोर महिला विरोधी। उनका विचार था कि पशुओं की जगह कांजी हॉउस में और महिलाओं की रसोई में होने चाहिए। नेचर ने इन्हें चौका-बर्तन और बच्चे पैदा करने के लिए बनाया है। दफ़्तर इनमें निठल्लापन पैदा करता है। यहां वो दिन भर सोती रहती हैं। एक-दूसरे को जलाने के लिए रोज़ नए कपड़े पहन कर आती हैं। फैशन की नुमाईश करती फिरती हैं।
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू बहुत रोमांटिक था। जब भी किसी महिला सहकर्मी उनकी ओर मुस्कुरा कर देखा तो जीभ लपलपा गयी। दिल ओले ओले करने लगा।। जनाब पीछे-पीछे चल देते थे। बहुत दूर तक छोड़ कर आते थे।
हमने उन्हें अक्सर देखा जब भी कोई सामने आ कर बैठी नहीं कि ऊंठ की तरह गर्दन बहुत आगे तक निकल आयी। शुक्र है कि बीच में बहुत चौड़ी टेबुल होती थी। अन्यथा आभास होता था कि चुम्मी लेने में उन्हें देर न लगे। दायें-बायें बैठी महिला अगर अलर्ट न हो तो समझ लीजिये सर गोद में रखने का मौका न चूकें।
महिला कर्मी के जीवन में दुःख हो या सुख। सबसे पहले पहुंचने वालों में वही महिला विरोधी ही होते। धन और मन से सेवा की पेशकश भी करते। तन से तो वहां मौजूद होते ही थे।
महिलाओं के प्रति उनकी यह आसक्ति देख उनके बारे में यह धारणा थी - खुदा करे कि हसीनों के मां-बाप मर जाएँ, बहाना ग़मी का हो और हम उनके घर जाएं।
मगर थे, हद दरजे के ईमानदार, चाहे धर्म हो या कर्म। दफ़्तर का काम मन लगा कर पूरा करते हैं। बहुत ऊंचे पद पर होने के कारण उन्हें ऑफिस की ओर से वाहन सुविधा भी प्रदत्त वाहन थी। लेकिन उन्होंने इस सुविधा को अपनी मर्जी से ठुकरा दिया। जैसे-तैसे ऑटो-टेम्पो में लद कर और ठसा-ठस भरी बस में पिसते हुए, धक्के खाते हुए आते-जाते रहे। इस वज़ह से ऑफिस आने और घर पहुंचने में अक्सर देर हो जाया करती रही।
लेकिन इसके पीछे की असलियत हम जैसे उन पर पैनी निगाह रखने वाले लोग ही जानते थे।
दरअसल वो उसी बस में घुसना-ठुसना पसंद करते हैं जिसमें अधिकाधिक महिलायें हों। बाद में सांस की समस्या के कारण उन्होंने बस छोड़ शेयरिंग ऑटो में आना-जाना शुरू कर दिया। भले ही कितने ऑटो छोड़ने पड़ें, लेकिन बैठेंगे उसी में जिसमें कम से कम एक अदद महिला मौजूद हो। और महिला दिखने में कैसी ही क्यों न हो, बस महिला ज़रूर होनी चाहिए। उम्र भी कोई मायने नहीं रखती। अगर महिला के सट कर बैठने का मौका मिला तो बस फिर कहने ही क्या! उनका स्टॉप भी वही होता है जो उस भद्र महिला का है।
इस चक्कर में कभी-कभी गंतव्य स्थान से दो किलोमीटर आगे भी निकल जाते हैं। भले ही दफ्तर पहुंचने में कितनी ही देर क्यों न हो जाये।
इसी विलक्ष्ण प्रतिभा के कारण ही गीले साहब कहलाये। अब वो रिटायर हो चुके हैं।
एक दिन हमारे सामने भन्न से एक कार रुकी। देखा गीले साहब हैं। गोरे गोरे मुखड़े पर काला काला चश्मा। आओ बैठो, कहां चल रहे हो? हम बैठ गए। हमने उन्हें मुस्कुरा कर देखा। वो हमारा आशय समझ गए। अब सत्तर के होने को आये हैं। सब ऑफिस के साथ छूट गया। फिर बच्चे बड़े हो गए। उनके भी बच्चे हैं। सब जवान हो रहे हैं।
हमारा ठिकाना आ गया था। हमने उन्हें बॉय किया। उनकी आंखे गीली थीं। घर आओ, एक कप चाय पीयेंगे। पुरानी यादों का ताज़ा भी।
हमने कुछ हिसाब लगाया और अगले संडे का वादा किया।
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