Saturday, October 1, 2016

लड़कियों के तकिए के नीचे होती थी देव की तस्वीर

-वीर विनोद छाबड़ा
देवानंद एक विचित्र शख्सियत थे। उनकी चलने की, बोलने की और अभिव्यक्ति की स्टाईल सबसे निराली थी। उनका असली दौर पचास और साठ का दशक था। फिर भी वो कलरफुल पर्सनाल्टी थे। उनकी इमेज सदाबहार थी। सोलह साल की लड़की भी उनके साथ हीरोईन बनने के लिए लालियत रही। यही कारण था कि वो सत्तर और अस्सी के दशक में भी चलते रहे। उनको पुरुषों से ज्यादा महिलाओं द्वारा पसंद किया था। सोलह साल की भी और साठ वाली भी। सिनेमाहाल में मर्दों से ज्यादा महिलाओं मौजूद रहती थी। इसीलिये उनसे लोग रश्क करते थे। गर्ल्स होस्टलों में तकिये के नीचे उनकी की तस्वीर पायी जाती थी।
फ़िल्मी दुनिया और उससे संबंध रखने वाले उन्हें देवसाब कहते थे। देवसाब का मशहूर एक्ट्रेस सुरैया से ज़बरदस्त इश्क चला था। मगर सुरैया की नानी तैयार नहीं थीं। धर्म आड़े आ गया। देवसाब ज्यादा इंतज़ार नहीं कर पाये और अपने बड़े भाई चेतन आनंद की खोज मोना उर्फ़ कल्पना कार्तिक से ब्याह रचा लिया। 
उस ज़माने में देवानंद कट हेयर स्टाइल के प्रति नौजवानों में जूनून की हद दीवानगी थी। देवसाब की कैप भी बड़ी मशहूर हुई। ये कैप 'ज्वेल थीफ़' (१९६७) की देन थीं। ये वो दौर था जब देवसाब की फिल्मों का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार रहता था।
नायकों की लोकप्रियता का पता हेयर कटिंग सैलूनों की दीवारों पर चिपकी तस्वीरों से चलता था। दो राय नहीं कि हॉट फ़ेवरिट में देवानंद पहले पर होते थे और दिलीप कुमार दूसरे पर। अशोक कुमार, राजकपूर, प्रदीप कुमार, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त आदि पीछे-पीछे।  

मज़े की बात यह है कि दिलीप और देव परदे के पीछे गहरे दोस्त थे। संघर्ष के दिनों में एक ही लोकल से आया-जाया करते थे। इनको एक साथ 'इंसानियत' (१९५५) में देखा था।
कई नायिकाओं का कैरियर बनाने का श्रेय देवसाब को जाता है। ज़ीनत अमान हालांकि ओपी रल्हन की खोज थी। परंतु उसे ज़मीन से आसमान पर बैठाने का काम देवसाब ने किया। 'हरे रामा हरे कृष्णा में' वो उनकी बहन थीं। बताया जाता है कि निर्माण के दौरान ज़ीनत परेशान थी कि कहीं ऐसा न हो कि फिल्म सफल हो जाये और उस पर बहन होने का ठप्पा लग जाए। देवसाब ने उसकी मुश्किल दूर कर दी। अगली फिल्म 'हीरा पन्ना' में घोषित कर दी जिसमें नायिका ज़ीनत थी। कलाबाज़, डार्लिंग डार्लिंग, वांटेड आदि कई फिल्मों में भी दोनों नायक-नायिका रहे। लेकिन बात कुछ हज़म नहीं हुई। दरअसल, उन दिनों पचास की उम्र में  कलाकार आमतौर पर चरित्र भूमिकाओं में देखे जाते थे और देवसाब हीरो बने घूम रहे थे। लेकिन जब 'देस परदेस' में जब ५५ की पिता समान उम्र में देवसाब १७ की टीना मुनीम से इश्क फरमाते देखे गए तो उनके घनघोर दीवानों को भी उलटी हो गयी। देवसाब की चिरयुवा छवि छिन्न-भिन्न हो गयी। लेकिन उन पर कोई फर्क नही पड़ा। वो खुद को नायक रख कर बद्दस्तूर फ़िल्में बनाते रहे।
'हम दोनों' (१९६१) में वो डबल रोल में थे। इसे लेकर विवाद भी हुआ। परदे पर इसे निर्देशित करने का क्रेडिट अमरजीत को दिया गया। लेकिन देवसाब का कहना था कि वास्तविक निर्देशक उनके छोटे भाई विजयानंद थे। इसकी अहमियत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस सुपरहिट ब्लैक एंड व्हाईट फ़िल्म का २०११ में रंगीन वर्जन रिलीज़ हुआ।

जॉनी मेरा नाम (१९७०) बहुत बड़ी हिट थी। लेकिन इस फ़िल्म के बाद से देवसाब की मशहूर हेयर स्टाइल काफी हद तक छंट गयी। उनके बाल पहले जैसे नहीं रहे। इसी के साथ उनके प्रति दीवानगी में भी कमी आई। दरअसल एक नई पीढ़ी आ चुकी थी जो धर्मेंद्र, जीतेंद्र, राजेश खन्ना की दीवानी थी और अमिताभ बच्चन दस्तक दे रहे थे। इसके बाद हालांकि देवसाब ने कई फ़िल्में बनायीं मगर अपने सुख के लिए। वो कहते थे कि इससे मुझे एनर्जी मिलती है।
साठ के दशक की सफलतम फिल्मों की सूची में देवसाब की 'ज्वेल थीफ़' का नाम भी दर्ज है। इसका आख़िरी डायलॉग भी बहुत मशहूर हुआ था - और एक था, ज्वेल थीफ़। सचमुच दूसरा ज्वेल थीफ़ पैदा नहीं हुआ और शायद होगा भी नहीं। किसी भी कलाकार को उन्हें कॉपी करना बहुत मुश्किल रहा है। लेकिन मिमिक्री आर्टिस्टों ने उनके नाम पर बहुत पैसा कमाया।
देवसाब ने ११४ फ़िल्में की जिसमें ९२ में वो अकेले हीरो थे। यों तो देवसाब की कई फ़िल्में अच्छीं थीं। लेकिन खासतौर पर कालापानी, हम दोनों, असली नकली, मुनीमजी, जब प्यार किसी से होता है, तेरे घर के सामने, तीन देवियां, गैंबलर, अमीर-गरीब और तेरे मेरे सपने बहुत पसंद की गयीं। 'गाइड' के निर्माता के रूप में देवसाब को पूरे विश्व में ख्याति मिली। कई पुरुस्कारों से नवाजे गए। बेस्ट हिंदी फिल्म का नेशनल अवार्ड भी मिला। 'कालापानी' और 'गाइड' में उम्दा एक्टिंग के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। फिल्मफेयर ने १९९१ में लाईफ़टाइम अचीवमेंट का सम्मान दिया। भारत सरकार ने उन्हें २००१ में पद्म भूषण से नवाज़ा। फिल्मों में अपूर्व योगदान के लिए सबसे बड़ा ईनाम दादासाहेब फाल्के उन्हें २००२ में दिया गया। अलावा इसके भी अनेक अवार्ड मिले। लेकिन  जब-जब उन्हें अवार्ड दिया गया तो ऐसा लगा कि सम्मानित खुद अवार्ड हो रहे हैं। 
देवसाब ने ३५ फ़िल्में प्रोड्यूस की और उनमें से १९ डायरेक्ट की। चाहे फिल्म चले या न चले, वो फ़िल्में बनाते ही चले जाते थे। बिलकुल एक फैक्टरी की तरह। उनका कहना था कि फ़िल्में बनाने से उन्हें एनर्जी मिलती है और यंग महसूस करते हैं। उन्होंने अपने बेटे सुनील आनंद को 'आनंद ही आनंद' में लांच किया था। मगर ये सुपर फ्लॉप रही। इसके साथ ही सुनील के कैरियर पर भी स्टॉप लग गया।
देवसाब का जन्म २६ सितंबर १९२३ को हुआ था और ०३ दिसंबर २०११ को लंदन के एक होटल में वो मृत पाए गए। उनका संस्कार वहीं लंदन में ही हुआ और उनकी अस्थियों को भारत की गोदावरी नदी में विसर्जित कर दिया गया। 
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Published in Navodaya Times dated 01Oct 2016
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mob 7505663626



2 comments:

  1. वाह देव साहब के बारे में पहले कभी इतना जानने पढने को नहीं मिला | कमाल का दिलचस्प आलेख | बहुत ही सुन्दर विनोद जी

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  2. bahut gahraiyon k sath likha hain aapne

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