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वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों हम स्टूडेंट हुआ करते थे। मल्टी स्टोरी चारबाग़ में रहते थे। हमारे पड़ोस
में एक लड़का रहता था। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। वो रेलवे में गार्ड हुआ करते
थे। मां को पिता के स्थान पर नौकरी मिली थी। पांच बच्चों का परिवार, कच्ची गृहस्थी। मां
ने ही संभाला।
सबसे बड़े सुरेश, शायद यही नाम था, ने रेलवे के टेक्निकल कॉलेज से मकैनिकल इंजीनियरिंग से डिप्लोमा किया और फिर रेलवे
के कैरिज एंड वैगन शॉप में उसे नौकरी मिल गयी। मोटर साईकल पर बड़ी शान से टहला करता
था। एक दिन हमें हज़रतगंज में मिल गया। हमें रॉयल कैफ़े में ले गया। कहने लगा कि लाईफ़
एन्जॉय ज़रूर करनी चाहिए। हमने कीमा-समोसा खाया और साथ में कॉफी। मज़ा आ गया। हमने पहली
बार पता चला था कि समोसे में आलू के स्थान पर नॉन-वेज भी भरा जाता है।
हम बाहर निकले। एक बूट-पालिश वाला मिला। उसने एक लंबा सलूट ठोंका और सुरेश का जूता
साफ़ करने के लिए तनिक झुका। सुरेश ने पांव पीछे खींच लिए। जूते साफ़ हैं, इसकी ज़रूरत नहीं। उसने
बताया कि कोई महीना भर पहले यह लड़का भीख मांगता था। मैंने इसे काम पर लगा दिया। अब
यह जूता मरम्मत का काम भी सीख रहा है।
सुरेश ने हमें एक सीख दी। जब नौकरी लगे तो एक का भला ज़रूर करना।
कुछ समय बाद हमारी नौकरी लगी। एक दिन हमने एक भिखारी से पूछा। कुछ काम करोगे? उसने न कर दी। भीख
मांगने से बढ़िया और क्या काम हो सकता है? न हींग लगे, फिटकरी। इसी तरह हमने तीन-चार और भिखारियों से पूछा। मेहनत के नाम पर सबने न कर
दी। शुक्र यह रहा कि किसी ने यह नहीं कहा कि नौकरी छोड़ कर हमारे धंधे में लग जाओ। बहरहाल, हमने एक को तैयार कर
लिया। उसे सौ रूपए दिए। और बताया कि अमूक दुकान पर तुम्हें बूट-पालिश की किट मिल जायेगी।
रात दोस्त के साथ नाईट शो फिल्म देखने गए। वो लड़का हमारे बगल में बैठा था। हमें
देखते ही ऐसा गायब हुआ जैसे गधे के सर सींग।
पुछल्ला - कुछ दिन पहले हमने एक ब्यूटी पार्लर से एक महिला को निकलते देखा। परफेक्ट
भिखारिन का मेक-अप। इच्छा तो हुई कि हम भी किसी पुरुष मेकअप पार्लर में घुस जायें।
फिर रुक गए यह सोच कर कि थोड़ा ही सही,
गुज़ारा हो तो रहा है।
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