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वीर विनोद छाबड़ा
रिश्तेदारों में मामा का कद भी बहुत बड़ा होता है। कभी हमारे मामा ५०० मीटर दूर
रहा करते थे। उनके और हमारे घर के बीच मैदान था। जहां हम क्रिकेट और फुटबाल खेलते खेलते
उनके घर चले जाते थे। पतीसे के साथ घड़े का ठंडा पानी पीने। कई बार चलते हुए मामी हाथ
में दो पैसे भी रख देती थी। त्यौहार हुआ तो इक्कनी या दुअन्नी। लोहड़ी के दिन सुबह पहुंच
गए तो जलेबी भी हो जाती थी।
उन दिनों उनका घर बन रहा था। बहुत बड़ा और तिमंज़िला। यह साठ के दशक की शुरआत की
बात है। उन दिनों आलमबाग के चंदर नगर में विरले ही तिमंज़िले मकान थे। अमीरों में गिनती
होती थी उनकी। हम लोग उस घर में आइस-पाईस खेलने में बहुत आनंद मिलता था। बड़े हुए तो
समझ आने लगी। पैसे लेना बंद कर दिया। मामा ज़बरदस्ती जेब में ठूंस देते।
फिर ऐसा समय भी आया कि हम खुद कमाने लगे। दूर रहने भी चले गए, करीब बीस किलोमीटर।
लेकिन आना-जाना लगा रहा। भोजन कराये बिना तो कभी लौटाए नहीं गए।
एक दिन हम जल्दी में थे। मामा ने हाथ पकड़ लिया। रास्ते में कोई मिला तो पूछेगा
कहाँ से आ रहे हो? यही कहोगे न कि मामा के घर से आ रहा हूं। उसका अगला सवाल यह होगा कि क्या खाया? क्या जवाब दोगे?
हमें बैठना पड़ गया। उनकी ताक़ीद होती थी जब भी आओ तो खाली पेट और कम से कम तीन-चार
घंटों के लिए।
मामा गुज़र गए और फिर कुछ समय बाद मामी भी। लेकिन मामा के बेटे ने उनकी कमी महसूस
नहीं होने दी। हमसे करीब दस साल बड़ा था वो। पक्का बिज़नेसमैन। ऑटो पार्ट्स की दुकान
थी। घर में बात दुकान पर नहीं बिलकुल नहीं। एक-दो परसेंट डिस्काउंट आने-जाने पर खर्च
हुए पेट्रोल के नाम पर ज़रूर मिल जाता था। घर पर तो ममेरा भाई बन कर नहीं मामा बन कर
ही मिलता था। सारी प्लेटें खाली करनी है। कई बार तो मुंह में ठूंसता था।
बारह साल पहले वो भी नहीं रहा। भाभी भी साल भर बाद चल बसी। अब उनके बेटे और बहुएं
हैं। यह तीसरी पीढ़ी है। अब हम बड़े हैं उनके। कभी कभी जाना होता है। हम खुद से जाते
हैं। वही दरो-दीवारें हैं, वही घर है, जहां हम खेला करते थे। और सामने गुरुद्वारा। उनके आस-पास अब विशाल इमारतों की भीड़
है। पिछली दो पीढ़ियों के वहां होने का अहसास होता है।
हमें मालूम है कि जब तक हम हैं तभी तक जाने का यह सिलसिला चलेगा।
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