-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे मोहल्ले में एक हैं -लल्लूजी (असली नाम नहीं)। किसी शब्द या मुद्दे को पकड़
लें तो कई दिन क्या, महीनों नहीं छोड़ते। सुरसा की आंत। टॉपिक खत्म ही नहीं होता।
अभी कल ही की बात है। मैं स्कूटी बाहर कर किक पर किक लगा रहा था। सर्दी में भी
गर्मी का अहसास। ठंड में गीयरवाली स्कूटी बहुत परेशान करती है। न सेल्फ से स्टार्ट
हों न किक से। जब तक पैनल हटा कर स्पार्क प्लग न साफ़ करो स्टार्ट ही नहीं होती।
मुझे स्कूटी से कुश्ती लड़ते देख लल्लूजी बेहद प्रसन्न थे। नामाकूल दूर खड़े हंस
रहे थे।
मैंने पीठ कर ली। न होगा न बजेगी बांसुरी।
मगर वो ठहरे एक नंबर के पट्ठे। धीरे से मेरे पीछे आ खड़े हुए। और ही-ही कर हंसते
हुए बोले - मैंने इसीलिए स्कूटी नही खरीदी।
पहाड़ सर पर गिरा। अब घंटो चटेंगे। ऐसे लोगों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता। ये
फेबिकोल का मजबूत जोड़ है। बल्कि उससे भी आगे। फेबिकोल तो फिर छूट जाए मगर ये न छूटने
वाले। अभी इनकी बेसिर-पैर की जिज्ञासाएं प्रारंभ होंगी।
इन्हें भगाने का तरीका एक भुक्तभोगी मुझे बता चुके हैं - एक कंटाप रसीद दो।
लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा। इसलिए कि मेरी हिम्मत ही नहीं।
दूसरा कारगर उपाय है - इनकी बुलडोज़र।
उन्हें देखते ही लल्लूजी फौरन से पेश्तर तिड़ी हो जाते हैं।
मैं कातर दृष्टि से लल्लूजी के घर की ओर देखता हूं - काश आ जाती इनकी बुलडोज़र!
इधर लल्लूजी स्कूटी की बुराइयों के परतें उधेड़े जा रहे हैं।
मैं चुपचाप स्कूटी का पैनल खोलने में लगा था। सुन ही नहीं रहा था कि लल्लूजी कह
क्या रहे हैं। तभी मुझे अहसास हुआ कि उन्होंने टॉपिक चेंज कर लिया है। ये कब हुआ पता
ही नहीं चला। वो नॉस्टैल्जिक हो गए थे।
लल्लूजी की यादों के कब्रिस्तान से एक 'सीढ़ी जिन्न' बाहर निकल मंडराने लगा। वो मेरे जवाब की प्रत्याशा में सवाल पर सवाल कर रहे थे
- अच्छा ये म्यानी की छत पर चढ़ने के लिए आपकी
जो सीढ़ी है लोहे की है न… सोचा था मैं भी लगवा
लूं.…लेकिन कोई बता रहा था कि लोहे की सीढ़ी हिलती है.… आपकी हिलती है न.…इससे अच्छा तो बांस
वाली है.… अरे क्या हुआ हिलती है.…लोहे से तो सस्ती तो है....तीन साल तो चल ही जायेगी…लोहे वाली ज्यादा से
ज्यादा सात-आठ चलेगी…आंधी-तूफ़ान-जाड़ा-गर्मी-बरसात और धूप में चीज़ें सड़ती-गलती ही हैं। लोहा है तो क्या
हुआ.....आपकी सीढ़ी छांव में होने का कारण हो सकता है ज्यादा चल जाए.…अच्छा तो कोई बता रहा
था कि घर में बांस नहीं रखा जाता…इसीलिए मैंने नहीं खरीदी…ज़रूरत ही क्या है.… अरे सर्दियों में छत पर बैठ कर दो मिनट धूप ही तो खानी है.…आस-पड़ोस से काम चल
ही रहा है…अच्छा ये म्यानी की छत पर चढ़ने के.…
लल्लूजी का टेप खत्म होने के बाद ऑटोमैटिक रिवाइंड हो फिर वहीं से शुरू हो चुका
है जहां से चला था।
मेरे भाग्य अच्छे थे।
लल्लूजी का बुलडोज़र आ गया - यहां क्या कर रहे हो? जैसे तुम, वैसे ही फालतू तुम्हारे
दोस्त। चौका-बर्तन कौन करेगा?
लल्लूजी दुम दबा कर खिसक लिए।
पच्चीस साल तो हो गए होंगे उनका घर दुमंजिला हुए। मगर दुमंजिले की छत पर जाने के
लिए सीढ़ी नहीं बनायी। और किसी मुद्दे पर भले ही पूरब और पश्चिम हों, उत्तर और दक्षिण हों
मगर सीढ़ी के मुद्दे पर लल्लूजी और उनकी बुलडोज़र में ज़बरदस्त एका है।
सड़ी, दकियानूसी, स्टोनऐज और बाल की खाल निकालने वाली सोच पर वो हमेशा एक तरफ खड़े दीखते हैं।
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