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वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। हम स्टूडेंट हुआ करते थे। नाईट शो देख कर लौट रहे थे। साईकिल
लहराते हुए गुनगुना रहे थे - जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को...
सड़क पर स्ट्रीट लाईट के नाम पर कहीं कहीं बिजली के खंबों पर चालीस वाट के लट्टू
जल रहे थे। एक जगह पर अंधेरा था। अचानक हम धड़ाम से गिरे। कुछ पल तक समझ ही नहीं आया
कि ये क्या हुआ। तभी एक और झटका लगा। किसी ने हमें उठा कर फेंक दिया। हम चीख उठे। असंख्य
तारे एक साथ दिखे थे। कुछ पलों तक तो होशो-हवास भी गुम रहे। जब जाग्रत हुए तो पता चला
कि हम गौ माताओं के झुंड पर गिरे थे जो बीच सड़क बैठा जुगाली कर रहीं थीं। हमें यह याद
नहीं है कि वो गौ माता थी या सांड, जिसने हमें सींगों पर उठा दूर फ़ेंक था।
ऐसे में कोई राहगीर भी उधर नहीं फटका। जैसे-तैसे खुद ही उठे। थोड़ा उछल-कूद कर भी
देखा। अंग-प्रत्यंग सब सही सलामत थे। तभी मद्धिम सी रोशनी दिखी। कोई रिक्शावाला था।
छोटी सी लालटेन लगी हुई थी। कहीं दीप कहीं दिल...। उन दिनों रिक्शेवालों के लिए लालटेन
ज़रूरी होती थी। उसी की मद्धिम रोशनी में हमें अपनी साईकिल दिखी। गौ माताओं के झुंड
के बीच में पड़ी थी। हमने उन स्कूटर वाले भाई साहब की मदद से गौ माताओं को उठाया। साईकिल
उठाई। मडगार्ड पिचक कर टायर से चिपक गया था।
खरड़ खरड़ करते हुए घर पहुंचे तो पता चला कि कई जगह से खाल छिल गयी थी और नयी पैंट
भी फट गयी थी। सुबह उठे तो बदन बुरी तरह से दुःख रहा था। मां हमें रेलवे के आऊटडोर
हॉस्पिटल ले गयी। टिटनस का इंजेक्शन लगा और मरहम-पट्टी हुई। तीन दिन तक सुबह दोपहर
शाम गोलियां और शीशी में लाल कड़वा पानी-पानी सा शरबत।
वो दिन है और आज का। पचास बरस करीब गुजर चुके हैं। कुछ भी नहीं बदला है। गौ माताओं
का न तो स्वभाव बदला है और न आदतें। झुंड में बीच सड़क पर बैठी मिलेंगी। स्ट्रीट लाईट
कहीं है, कहीं नहीं। लेकिन हम सावधान रहते हैं। रात के समय निकलने से बचते हैं। जेब में
छोटी सी टार्च भी रखते हैं। आंखें सड़क पर गड़ाये रहते हैं।
गौ माताओं से ज्यादा डर सड़क पर इधर से उधर मंडरा रहे सांडों से लगता है। पहले की
अपेक्षा इनकी संख्या बढ़ गयी है।
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04-10-2016 mob 7505663626
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