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वीर विनोद छाबड़ा
मुझे याद आ रहा है एक किस्सा। पहले ही बता दूं कि यह किस्सा ७५% सच्चा है और २५%
फिक्शन का तड़का।
एक बहुत बड़े शायर थे। मज़दूरों और मजलूमों के हक़ में बोलने के लिए मशहूर। फिल्मों
में भी लिखते थे। पैसे की उनको कमी नहीं थी। आलीशान बंगला था। हर उम्र की महिलायें
उनकी शायरी पर और उन पर दीवानावार थीं। और शायर मोहतरम तिस पर कुंवारे। शादी की उम्र
यों तो निकल चुकी थी, लेकिन फिर भी फ़िदा होने वालियों की कमी नहीं थीं।
मां तो एक मुद्दत से बहु का चेहरा देखने के लिए तरस रही थी। कब्र में पैर लटके
हैं। जब उठ जाऊंगी दुनिया से. तब लाएगा बहु।
सुबह से शाम तक शायर यही ताने सुना करते थे। मज़े की बात तो यह थी कि शायर महोदय
का दुनिया में मां के अलावा कोई और नहीं था। बेसाख़्ता मोहब्बत करते थे। इस हद तक कि
जान मांगे तो वो भी दे दें। लेकिन शादी के नाम पर कन्नी काट जाते थे। वैसे यह जग-ज़ाहिर
था कि शादी न करने के पीछे वजह कोई मर्दाना कमज़ोरी नहीं थी।
दोस्त और नाते-रिश्तेदार तो कह-कह कर थक गए थे। लेकिन शायर महोदय को फ़ुरसत ही नहीं
थी। दरअसल, यह तो एक बहाना था। वजह कुछ और ही थी।
एक दिन पानी सर से ऊपर निकल गया। मां अनशन पर बैठ गयी। जब तक बहु का मुंह न देखूं, एक बूंद पानी भी हलक़
के नीचे न उतारूं। मां का साथ उनके कुछ करीबी दोस्त भी दे रहे थे।
उन्होंने दोस्तों को साथ लिया और पहुंच गए एक खूबसूरत तवायफ़ के कोठे पर। तवायफ़
से बात हुई। आपको दुल्हन बनने की सिर्फ़ एक्टिंग करनी है। कुछ ही घंटों की बात है। मुंहमांगी
रक़म मिलेगी।
तवायफ़ को पैसों का लालच नहीं था,
लेकिन यह दुल्हन बनने का ड्रामा उसके बस का नहीं था। बहरहाल, काफ़ी मान-मन्नौवल के
बाद वो तैयार हुई। उसके दिल में यह भी एक ख़्याल था कि झूठ ही सही, दुल्हन तो बनूंगी।
और वो एक ऐसे शायर की जिसकी ग़ज़लें और नज़्में पर न जाने कितनी बार उसने मुजरा किया है।
शायर साहब ने उसे अपनी बड़ी और फूलों से सजी हुई कार में बैठाया। लेकर पहुंचे घर
- ले बेबे, आ गयी तेरी बहू। वेख ले जी भर के।
मां बहुत खुश हुई। अपलक देर तक बहु को देखती रही। कभी लेफ्ट तो कभी राईट। कभी ऊपर
तो कभी नीचे। वाह मेरे पुत्तर, ज़िंदगी की सबसे बेशकीमती चाह पूरी कर दित्ती तूने। मैं वारि वारि जावां।
लेकिन अचानक मां ने बहु को गालियां देनी शुरू कर। मानों पागलपन का दौरा पड़ गया
हो। मेरी सौतण ले आयां तू। मेरे पुत्तर को डस लेगी। मुझसे छीनने आयी है....बेशुमार
गालियां भी दे डालीं। ले जो इसे जहां से लाया है। मुझे नहीं चाहिए बहु।
सब लोग सन्नाटे में। यह क्या हो गया है मां को? लेकिन शायर साहब पर
कोई असर नहीं पड़ा। अब समझ में आया कि शादी के नाम पर मैं दूर क्यों भागता रहा। मुझे
मालूम था कि मेरी मां अपने घर में न कोई दूसरी औरत की मौजूदगी बर्दाश्त कर सकती है
और न यह चाहती है कि उसके बेटे को उसके सामने से कोई दूसरी औरत अगवा करके ले जाए।
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दो-तीन साल बाद शायर की मां दिवंगत हो गयी। वो अंतिम सांस तक बहु के लिए तरसती
रहीं। शायर को दोस्त कहते रहे। अब तो मां नहीं रही, कर ले शादी। लेकिन
शायर तैयार नहीं हुए। उनको डर रहा कि मां भूतनी बन कर बीवी को डराएगी। कुछ अरसे बाद
वो कुंवारे ही इंतकाल फ़रमा गए।
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