-वीर विनोद छाबड़ा
एक पहुंचे हुए साधू अपनी मण्डली के साथ एक बड़े राज्य से गुज़रे। उस राज्य की समृद्धि, वैभव और हरियाले वातावरण
से प्रभावित होकर साधू ने कुछ दिन वही रुकने का फैसला किया।
एक दिन साधू को ज़मीन पर पड़ा एक सोने का सिक्का मिला। उसे उठा कर उन्होंने अपने
झोले में रख लिया।
ऐसा करते देख उनके शिष्यों ने कहा - महाराज
इसे आपने रख क्यों लिया? हमें मिलता तो अवश्य ही नगर जा कर कुछ मिष्ठान इत्यादि क्रय कर लाते।
साधू मुस्कुराये - शिष्यों यह कोई साधारण सिक्का नहीं। तुम देखना, इसे मैं सही समय पर
किसी सुपात्र को भेंट कर दूंगा।
एक दिन साधू को खबर मिली कि इस राज्य का राजा एक बड़े फौज-फाटे के साथ दूसरे राज्य
पर आक्रमण करने जा रहा है और उसका काफ़िला इधर ही से गुज़रेगा। साधू जी को लगा यही सही
समय है इस देश के राजा से मिलने और ज्ञान देने का।
साधू उस राजा के मार्ग में खड़े हो गए।
राजा को मंत्री के माध्यम से ज्ञात हुआ कि यह कोई पहुंचे हुए साधू महाराज हैं।
इनसे आशीर्वाद लेना शुभ होगा।
राजा अपने रथ से उतरा और साधू जी से विजय का आशीर्वाद मांगा।
साधू महाराज ने सोने का सिक्का राजा के हाथ पर रखते हुए कहा - तुम्हारा राज वैभव
से पूर्ण है। तब भी तुममें लालच से परिपूर्ण विस्तारवादी नीति का अंत नहीं। अब दूसरे
राज्य को हड़पने जा रही हो। मेरे विचार से तुमसे बड़ा कोई दरिद्र नहीं। इसीलिए यह सोने
का सिक्का मैं तुझे दे रहा हूं।
यह कह कर वो साधु महाराज शिष्यों सहित वहां से प्रस्थान कर गये।
राजा गहरे सोच-विचार में ढूब गए। अंत में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि आवश्यकताएं
परिपूर्ण हैं, परंतु लालच का कोई अंत नहीं है।
राजा ने तुरंत ही फौजफाटे को लौटने का हुक्म दिया।
नोट - काश ऐसी भावना हर दिल में हो तो दुनिया में सुखशांति स्थापित हो जाये।
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