-वीर विनोद छाबड़ा
नया साल। बड़ी उमंगें
और आशाएं भी। अंबर झूम कर नाचेगा और धरती सोना उगलेगी। लेकिन ढाक के तीन पात। सरकार
किसान और गरीब की गठरी के पीछे ही पड़ी रही। हमने भी कद्दू में तीर मारने का कई बार
संकल्प लिया। मगर किया कुछ नहीं। आज नहीं कल करेंगे। इसी में साल दर साल गुज़र गए। पत्नी
का बड़बड़ाती है कि अंग्रेजों के चोंचले हैं सब। आज और कल में फ़र्क क्या आता है?
कल शनिचर था और आज इतवार। जमा पर ब्याज तो बढ़ नहीं गया। कल रजाई से निकल कर भयंकर
ठंड में कुड़कुड़ाते हुए दूध लेने गए थे और नए साल के पहले दिन भी वही किया। उल्टा कुकुर
ने दौड़ा दिया। कोहरे में कुछ दिखा नहीं। उसकी पूंछ पर पैर पड़ गया।
हमें याद है कि जब
हम यूनिवर्सिटी में थे तो बड़े-बड़े ख्वाब देखते थे। हमारे एक मित्र हर साल की पहली तारीख़
को संकल्प लेते थे कि आईएएस बनेंगे और फिर कलेक्टर। मगर उन्हें लड़कियों को देखने से
फ़ुरसत ही नहीं मिली। बाबू बन कर रह गए और साथ में हमें भी बनवा दिया।
यों भी हमारा जीवन
प्रारंभ से ही चुनौतियों से भरा रहा। उम्र भर नमक का हक़ पूरा का पूरा अदा किया। छत्तीस
साल तक गधों की तरह काम किया। ईमानदारी अपने डीएनए में भी रही। हमने खुद कभी नहीं खाया,
लेकिन दूसरों को नहीं रोक पाए। मलाल भी रहा कि मकान की रजिस्ट्री के लिए कचेहरी
में कई जगह 'दक्षिणा' देनी पड़ी।
रिटायरमेंट के बाद
पहले नववर्ष पर संकल्प लिया कि पड़ोसी बच्चों में कुछ अच्छे संस्कार डालें। न खाता हूं
और न खाने दूंगा। लेकिन चार दिन बाद बच्चों के माता-पिता लड़ने चले आये। अपने बच्चों
को संभालो। हमारे बच्चों का भविष्य क्यों बिगाड़ रहे हो?
लेकिन हम मायूस नहीं
हुए। अगली बार स्वच्छता अभियान छेड़ दिया। नित्य अपना कूड़ा खुद उठाईये और सड़क पार कूड़ेदान
में डाल कर आईये। मगर अगले ही दिन हमारे दरवाज़े कूड़े की पोटलियों का ढेर लग गया। सड़क
पार तो आप जाएंगे ही, हमारा कूड़ा भी लेते जायें। आप तो रिटायर हैं। रिटायर आदमी के
साथ यही प्रॉब्लम होती है। आपके हाथ में चूहेदानी देखी नहीं कि पड़ोसन ने फ़रमाईश कर
दी। भाई साहब, अपना चूहा छोड़ने जा रहे हैं, मेरा भी लेते जायें।
एक नववर्ष पर हमने
मॉर्निंग वाक के प्रचार का बीड़ा उठाया। कुछ दिन तक खूब बढ़िया चला। एक दिन पड़ोसी की
पत्नी ने शिकायत की - हमारे 'ये' मॉर्निंग वाक से वापस
आकर दो घंटे तक सोते हैं। और फिर दफ़्तर लेट
पहुंचते हैं। बदले में वेतन कट जाता है। प्राईवेट नौकरी है।
हम गांधी जी के अनुयायी
रहे हैं। एक बार नववर्ष पर प्रण किया कि अपने कमरे और आस-पास की सफाई खुद करेंगे। हमारे
हर अभियान की फूंक निकालने में अग्रेता रहीं मेमसाब को यह संकल्प बहुत सुभाया। घर-घर
प्रचार कर आईं। दूसरे दिन पड़ोसियों ने धावा बोल दिया। हमारी पत्नियों को बिगाड़ रहे
हो। हमें ये सेल्फ झाड़ू प्रोग्राम पब्लिकली ड्राप करना पड़ा। अलबत्ता चोरी चोरी,
चुपके चुपके पिछले दस साल से निरंतर चल रहा है।
दो साल पहले हमने मोहल्ले
के छोटे बच्चों को ट्रैफिक और सिविक सेंस सिखाने का बीड़ा उठाया। कई लोग लड़ने चले आये।
क्यों बच्चों को बिगाड़ रहे हो भाई? हमारे बच्चे हमें उठने-बैठने का शऊर सिखा
रहे हैं।
इस नववर्ष पर हमने
कार से ब्लैक फिल्म उतारने का संकल्प लिया। ये ग़ैर-क़ानूनी है। मेमसाब ने चेतावनी दी।
तुम कोई दरोगा हो क्या? देखना, पिटोगे।
हम नहीं माने। और वास्तव
में पहले ही प्रयास में पिटते-पिटते बचे। दबंग से पाला पड़ गया। शाम सिपाही डंडा फटकारता
हुआ घर आ गया। डांटा भी कि कार से फिल्म उतारना कानून का काम है। तुम करो तो ग़ैर-कानूनी
है। बहुत मुश्किल से 'सम्मान' सहित विदा किया उसे। संयोग से उसी दिन शाम
को पडोसी की कार से पुलिस ने फिल्म उतार दी। उसे हम पर शक है। बहरहाल, हमने अगले नववर्ष पर
कोई संकल्प नहीं लेने का संकल्प अभी से ले लिया है।
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Published in Prabhat Khabar dated 02 Jan 2017
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