-वीर विनोद छाबड़ा
शायद ही ऐसा कोई दिन गुज़रा हो कि मैं मित्र के घर गया और उनका पैमेरियन टिंगू मुझे
सोफ़े पर विराजमान न मिला हो।
मित्र चलने-फिरने से लाचार हैं। वो टिंगू को उस जगह से हटने का आदेश देते हैं।
वो हट जाता है। मित्र मुझसे अनुरोध करते हैं - बैठो।
मैं टिंगू द्वारा रिक्त स्थान पर न बैठ कर थोड़ा हट कर बैठता हूं। मैं जैसे ही बैठता
हूं वो उछल कर मेरे पास बैठ जाता है। कभी-कभी सर गोदी में रखने की कोशिश भी करता है।
मैं उसे परे करने की कोशिश करता हूं। मुझे कुत्तों से डर लगता है। बचपन में तीन-चार
बार काटा है मुझे नासपीटे कुत्तों ने।
मित्र मुझसे बात करने लगते हैं। बीच-बीच में 'टिंगू गुड बच्चा' कहते हुए उसे वहां
से चले जाने के लिए भी कहते रहते हैं। कभी कभी मुझे लगता है कि मुझे जाने को कह रहे
हैं। लेकिन न टिंगू वहां से जाता है और न मैं। वो मेरी बगल में ही बैठा रहता है। मुझसे
सटता जाता है। और मैं अपने में सिमटता रहता हूं। जितनी मुझे टिंगू से नफ़रत है, उतनी ही उसको मुझसे
मुहब्बत है। जब तक मैं हूं वो नहीं जाएगा।
बीच बीच में थोड़ी देर के लिए मित्र का ध्यान मुझसे बिलकुल हट कर टिंगू की तरफ चला
जाता है। फिर वो मुझसे बात करने लगते हैं। लेकिन मुझे अहसास होता है कि मित्र मुझे
टिंगू समझ कर बात कर रहे हैं। मित्र बताते हैं कि अभी थोड़ी देर पहले टिंगू नीचे ही
बैठा था। तुम्हारे आने की आहट से ये अलर्ट हो गया। और सोफ़े पर उस जगह विराजमान हो गया, जहां तुम अक्सर
आकर बैठते हो। हर बार ऐसा ही करता है। टिंगू ऐसा क्यों करता है मालूम नहीं? सच तो यह है कि इसका अलर्ट होना तुम्हारे आगमन का सूचक है।
इस तरह उन्होंने मेरा टिंगू से रिश्ता कायम कर दिया। मैंने कभी सपने में भी न सोचा
था कि मुझे कुत्ते के अलर्ट होने से पहचाना जाएगा। चलो अच्छा ही हुआ। एक हमारी पत्नी
है। अपने घर में दस बार दरवाज़ा पीटता हूं तब भी पूछती है - कौन है? कौन है?
बहरहाल, मित्र बातें करते रहते हैं। कारगिल पर बात शुरू करते हैं। मगर ध्यान किंगू की ओर
है। जाने कब वो कारगिल को छोड़ टिंगू पर आ जाते हैं । वो बताते हैं कि रात भर सोने नहीं
दिया इसने। ठडंक बहुत थी। अपनी रज़ाई में पनाह दी। रूम हीटर चलाया। तब कहीं इसे चैन
पड़ा। जब भी मित्र के घर जाता हूं, बात-चीत का एक तिहाई हिस्सा टिंगू से संबंधित रहता है। उसका
खान-पान, मनुहार, मचलना। बाहर घूमने की ज़िद। तैयार होते देख विचलित होना। शादी आदि समारोह में जाने
से पहले दरवाज़े के पर्दे ऊंचे करने पड़ते हैं, अन्यथा टिंगू नाराज़ होकर
फाड़ देगा। लखनऊ से बाहर जाते हैं तो टिंगू भी साथ जाता है। कानपुर, उन्नाव, तिर्वा, कन्नौज, दिल्ली आदि कई
शहर घूम चुका है। टिंगू की इन विशेषताओं के बारे में मित्र कई बार बता चुके हैं।
अब मैं भी टिंगू का आदी हो गए हूं। अब वो मेरी गोदी में सर रखता है तो मुझे ख़राब
नहीं लगता। मैं कभी कभी उसका सर भी सहला देता हूं। वो आंख बंद कर शुक्रिया अदा करता
है। एक तरह से टिंगू, मेरी और मित्र की तिकड़ी बन गयी। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब एक
दिन मुझे टिंगू नहीं दिखा। कुछ देर तक मैंने परवाह नहीं की। कहीं इधर उधर घूम रहा होगा।
लेकिन उसकी अनुपस्थिति को ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाया। पूछ ही लिया - टिंगू
कहां है?
मित्र बोले - बाहर गया है, पॉटी करने।
अचानक मुझे ध्यान आता है मेरे घर की ऐन एंट्री पॉइंट पर कुत्ते की जिस पॉटी के
हर सुबह दर्शन होते हैं वो इसी नासपीटे टिंगू की तो नहीं। मैं मित्र से पूछता हूँ तो
वो ज़ोर से हंसते हैं - संभव है।
कई बरस गुज़र गए। टिंगू बारह साल का हो गया है। उसकी सजगता पहले से कमजोर ढीली पड़
गयी है। मित्र मज़ाक करते हैं - ओवरटाईम पर चल रहा है।
एक दिन मित्र उदास दिखे। उन्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। बताते हैं कि टिंगू
की तबियत ठीक नहीं। मुझे भी कुछ अच्छा नहीं लगा। उस रोज़ मैं जल्दी उठ लिया।
दो दिन बाद मैं मित्र के घर पहुंचा तो पाया मित्र बहुत गंभीर है। सन्नाटा सा पसरा
है। मैं समझ गया। टिंगू नहीं रहा।
भरे गले से मित्र ने बताया - कल रात की बात है। टिंगू हमें छोड़ गया।
मेरा मन भी भर गया। हमारी रोज़ाना बात-चीत का सारा हिस्सा टिंगू पर चला गया। घर
में सभी उदास हैं।
उस दिन पहली मर्तबे मित्र ने पूछा - चाय पियोगे?
मैंने कहा - नहीं।
इससे पहले चाय अपने-आप आती थी। उदासी की गहराई मैंने नाप ली। सब गहरे अवसाद में
हैं। ठीक भी है। टिंगू सिर्फ जानवर नहीं था। घर का स्थाई सदस्य भी था।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि मित्र आइंदा पहले जैसे ही रह पाएंगे। मुझे भी ख़राब लगा।
लेकिन मैं जाता रहा। कुछ दिन तक मित्र गुम-सुम रहे। बगल में टिंगू के बैठने की सरसराहट
महसूस होती रही। मेरे हाथ कई बार उसे सहलाने के लिए उठे। फिर धीरे-धीरे पहले जैसा हो
गया। टिंगू को बीच-बीच में याद करते रहे। समय बड़ा बलवान होता है। सारे दुख दर्द भुला
देता है, ज़ख्म भर देता है। बशर्ते उसे पालो नहीं।
चार साल गुज़र चुके हैं।
अब मित्र भी परलोकवासी हो चुके हैं। जब-तब उधर से गुज़रना होता है। दोनों की बड़ी
शिद्दत से याद आती है। मैं आसमान की तकता हूं। मन ही मन सोचता हूं - ज्यादा वक़्त नही
बचा। जल्दी आता हूं।
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