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वीर विनोद छाबड़ा
कल रात हमारे एक पुराने मित्र आये। साथ में उनका बेटा भी था। मित्र को ड्राईव करने
में दिक्कत होती है। इसीलिए बेटा साथ में था। वो किसी बड़ी एमएनआई कंपनी में सवा लाख
रूपए महीने की नौकरी करता है। घोड़ा-गाड़ी-बंगला सब कुछ है। उसने चरण स्पर्श किये। हमें
ख़ुशी हुई कि संस्कार अभी ज़िंदा हैं। हमने भी फ़र्ज़ अदा किया। आशीर्वाद देते हुए उसके
उज्जवल भविष्य की कामना की।
याद नहीं किस मुद्दे से बात शुरू हुई और जा पहुंची 'हमारे ज़माने' पर।
मित्र का बेटा थोड़ा असहज हुआ। यह अपने ज़माने की बात आप लोग अक्सर किया करते हैं।
अब इसकी क्या ज़रूरत है। आपके ज़माने की वैल्यूज़ आज का ज़माना स्वीकार नहीं करता... वो
कह रहा था और हम सुन रहे थे।
हमने कहा - लेकिन शाश्वत सत्य तो अटल है न। झूठ बोलना पाप है, इसे भले आप न मानो, लेकिन झुठलाना तो मुमकिन
नहीं। और हम अपने ज़माने की बात करते हैं तो आज को कोसते नहीं हैं। हर पीढ़ी का अपना
दौर होता है। हर अपने दौर की कड़वी-मीठी यादें और संस्कार अगली पीढ़ी को ट्रांसफर करती
है ताकि सनद रहे। कभी-कभी मिर्च-मसाले का तड़का भी लगाना पड़ता है। कभी हमारे बाप-दादा
का दौर था फिर हमारा दौर आया। हमने अपने पिता से यही सवाल पूछे थे जो तुम पूछ रहे हो।
आज तुम्हारा दौर है। कल तुम्हारे बच्चे होंगे वो भी तुमसे यही सवाल करेंगे जो आज तुम
कर रहे हो। पीढ़ियों में मतभेद तो रहते ही हैं। हर दौर की सुख सुविधायें और मस्तियां
देख कर हर पुरानी पीढ़ी यही सोचती है,
काश २५-३० साल बाद पैदा हुए होते। तभी मित्र के बेटे का मोबाईल
बज उठा - दूर कोई गावे धुन ये सुनावे,
तेरे बिन छलिया रे बाजे न मुरलिया रे...
मित्र का बेटा हमें कनखियों से देखता हुआ उठ कर बाहर चला गया। शायद पर्सनल कॉल
है, किसी गर्ल फ्रेंड की।
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