- वीर विनोद छाबड़ा
चालीस से साठ का दौर। सूट-बूट
के ऊपर ओवरकोट, सिर पर हैट और मुंह में
दबी सिगरेट से निकलता धुआं। फैली हुई आंखें। उठती-गिरती भवें और माथे पर चढ़ी त्योरियां।
उसकी एंट्री का अर्थ है कि आगे कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा। वो ऊंचे स्वर में संवाद
नहीं बोलता है। क्रूर अभिव्यक्ति का यह एक निराला अंदाज़ है। इस स्टाईल के दम पर उन्होंने
वज़नदार मौजूदगी दर्ज करायी। नाम था कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह।
केएन सिंह ने एलएलबी किया
था। उहापोह में थे कि लंदन जाकर बैरिस्टरी करूं या फौज में भर्ती हो जाऊं। इस बीच उन्हें
अपनी बीमार बहन को देखने कलकत्ता आना पड़ा। वहीं बहनोई के माध्यम से पृथ्वीराज कपूर
से भेंट हुई। उन्होंने सलाह दी - बरख़ुरदार चेहरे मोहरे से ठीक-ठाक हो। सिनेमा बुरा
नहीं है।
थोड़ी हिचक के बाद वो मान
गये। देबकी बोस ने उनको ‘सुनहरा संसार’(१९३६) में पब्लिक
प्रासीक्यूटर की भूमिका दी। वकालत तो के.एन.सिंह के खून में थी। मगर साथ ही एक चुनौती
भी मिली। चार सफ़े के संवाद याद करने थे सिर्फ दो दिन के वक़्त में। पृथ्वीराज ने खूब
रिहर्सल कराई। ऐन शूट से पहले उन्होंने हौंसला बढ़ाया - तुम अच्छे नहीं, बहुत ही अच्छे
हो।
इस बीच दिल में ख्वाईश
पैदा हुई कि पृथ्वीराज जैसे बड़े आर्टिस्ट के सामने एक्टिंग की गहराई नापी जाये। जल्दी
इच्छा पूर्ण हुई। मगर मायूसी हुई कि उन्हें पृथ्वीराज के बाप का रोल करना है। पृथ्वी
से वो दो साल छोटे थे। लेकिन पृथ्वीराज ने कहा - कृष्ण मैं चाहता हूं कि तुम अदाकारी
के बाप बनो।
K.N Singh |
केएन सिंह को हीरो के लिये
कभी नहीं विचारा गया। कोई दुःख नहीं हुआ - एक एक्टर का काम सिर्फ एक्टिंग करना है।
हीरो हो या विलेन। ईमानदारी से किये काम को जनता रिस्पांस देती है।
जब केएन सिंह कलकत्ता से
बंबई आये तो याकूब सबसे कामयाब विलेन हुआ करते थे। एक इंटरव्यू में याकूब ने कबूल किया
कि अरे ये तो मेरा भी बाप है। पेश्तर इसके कि ज़माना नकारे, याकूब चरित्र भूमिकाओं
में आ गए।
केएन सिंह पर बांबे टाकीज़
की मालकिन देविका रानी मेहरबान हुई। पगार १६०० रुपया महीना और टैक्सी की सुविधा अलग।
ऐसा करारनामा उस ज़माने में सिर्फ ऊंचे कद की हैसीयत वाले आर्टिस्ट को ही नसीब था। इसकी
एक और वजह भी थी कि देविका पढ़े-लिखों का बहुत सम्मान करती थीं। और फिर केएन सिंह तो
फर्राटेदार अंग्रेज़ी और हिंदी भी बोलते थे।
वो एक बेहतरीन इंसान भी
थे। ताउम्र इस सिंद्धांत के कायल रहे कि जितना सीखा उसे साथ-साथ वापस भी करते चलो।
दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ थी। सामने केएन
सिंह जैसा नामी विलेन को देख कर उन्हें दहशत
हुई। तब उन्होंने दिलीप का हौंसला बढ़ाया - हम सब ईश्वर के मामूली बंदे हैं, अजूबा नहीं।
एक लाईन वाले जुमलों की
शुरुआत केएन सिंह ने की। उनका पसंदीदा जुमला था- 'अपनी बकवास बंद
करो। गधे कहीं के।' उनके यह कहते ही माहौल
में डरावनी सी खामोशी छा जाती थी।
उनका मानना था कि अगर ‘शोले’ में अमजद खान की
जगह वो होते तो ‘शाऊटी’ गब्बर सिंह के
किरदार को ‘अंडरप्ले’ करके ज्यादा खूंखार बनाते।
जोकरी करते विलेन उन्हें कभी पसंद नहीं आये। ज्यादा हिंसा, सैक्स व शोर से
फिल्म असल मकसद से भटकती है। उन्हें गर्व था कि हीरो की हिम्मत नहीं थी कि उन्हें 'हरामज़ादा' कह सके। क्योंकि
वो जानता था कि सामने जो विलेन है, वो सबका बाप है।
१९३६ से १९८२ तक के.एन.
सिंह ने लगभग २५० फिल्में कीं। इनमें जिनमें चर्चित रहीं - हुमायूं, बरसात, सज़ा, आवारा, जाल, आंधियां, शिकस्त, बाज़, हाऊस नं.४४, मेरीन ड्राईव, फंटूश, सीआईडी, हावड़ा ब्रिज, चलती का नाम गाड़़ी, बरसात की रात, आम्रपाली, स्पाई इन रोम, मेरे हुजूर, हंसते ज़ख्म, सगीना, मजबूर, कालिया आदि।
उनका कैरीयर सत्तर के दशक
में ढलान पर आ गया। मगर निराश कभी नहीं हुए। हरेक की जिंदगी में ऐसे दिन आते हैं। जो
कमाया, उसे लुटाया नहीं। सही जगह निवेशित किया। मोतिया बिंदू का आपरेशन
दुर्भाग्यवश असफल रहा। दुनिया हमेशा के लिए अंधेरी हो गयी। लेकिन याददाश्त लोहा-लाट
रही। उनकी पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी कोई संतान नहीं थी।
छोटे भाई विक्रम सिंह मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फिल्मफेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके
पुत्र पुष्कर को उन्होंने अपना वारिस माना।
देहरादून में ०१ सितंबर, १९०८ में जन्मे केएन सिंह इस दुनिया फानी से ३१ जनवरी
२००० को इंतकाल फरमा गए।---
Published in Navodaya Times dated 14 Jan 2017
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