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वीर विनोद छाबड़ा
चिट्ठी के नाम पर हमें एक मज़ेदार किस्सा याद आता है। हमारी बड़ी मामी हिसाब में
बहुत तेज़ थीं। मगर पढ़ने-लिखने में तक़रीबन सिफ़र। कोई पढ़ा-लिखा घर आया तो एक साथ दस-पंद्रह
पोस्टकार्ड लिखवा लेती थीं। सबमें एक ही इबारत। सिर्फ़ तारीख़ ताज़ा डाल कर वो हफ़्ते-दस
दिन पर रिश्तेदारों को चिट्ठी पोस्ट करती थीं। संयोग से वो मामी के नाम से मोहल्ले
भर में मशहूर भी थीं।
एक बार हम लोग भोपाल गए। गर्मी की छुट्टियां बिताने। हमारे साथ में मामी की बड़ी
बेटी मुन्नी भी थी। भोपाल में हमारी नानी और छोटे मामा थे। यह बात १९५९-६० की है। मुन्नी
भेंजी हम से बहुत बड़ी थीं।
कुछ दिनों बाद मुन्नी भेंजी वापस लखनऊ चली गयी। मामा उसे बाक़ायदा स्टेशन छोड़ने
गए। सही डिब्बे में बैठा कर आये। यह डिब्बा झांसी में कट कर लखनऊ जाने वाली ट्रेन में
लगता था।
उन दिनों के रिवाज़ के मुताबिक़ ख़ैरियत से पहुंचने की फ़ौरन इतल्ला चिट्ठी से देना
ज़रूरी होता था। अगले को भी बड़ी बेसब्री से चिट्ठी का इंतज़ार रहता था।
मुन्नी को गए चार दिन गुज़र गए। मामी का पोस्टकार्ड आया। मुन्नी अभी नहीं आई है।
उसे जल्दी भेजो। सब लोग हैरान। कहां गयी मुन्नी? मामा कटघरे में खड़े
कर दिए गए कि किस ट्रेन में बैठा आये?
इधर से फ़ौरन पोस्टकार्ड गया कि मुन्नी को ट्रेन में बैठा दिया गया था। पहुंच की
जल्दी इतल्ला दो।
लेकिन हफ़्ता न गुज़रा था कि फिर पोस्टकार्ड आया कि मुन्नी अभी नहीं आई। उसे जल्दी
भेजो।
मामला बहुत गंभीर हो गया। सूचनातंत्र बहुत ग़रीब था। टेलीफोन लाटसाहबों की निशानी
थी। तय हुआ कि टेलीग्राम डाला जाये।
तभी किसी ने अक्ल की बात की। टेलीग्राम का नाम सुनते ही मामी को गश पड़ जाएगा। पड़ोस
में रहने वाले पुलिस इंस्पेक्टर के मदद क्यों नहीं लेते?
आईडिया क्लिक कर गया। दूसरे ही दिन यूपी पुलिस से ख़बर आ गयी। मुन्नी को सही सलामत
घर पहुंचे तो मुद्दत हो चुकी है। सबकी सांस जिस्म में वापस आई।
मगर इसके बावज़ूद हम लोग जब तक भोपाल में रहे मामी का पोस्टकार्ड हर चौथे-पांचवे
दिन आता रहा। और उसमें यह लाईन वो काटना भूल जाती रही - मुन्नी अभी नहीं आई। उसे जल्दी
भेजो।
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31-01-2017 mob 7505663626
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Lucknow - 226016
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